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प्रमेयचन्द्रिका टी० श०९ ३० ३-३० सू०१ एकोहकाइोपनिरूपणम्
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क्रमेण यथा जीवाभिगमे यावत् शुद्धदन्तद्वीपो यावत् देवलोकपरिगृहीताः ते मनुष्याः मज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! एवम् अष्टाविंशतिरपि अन्तद्वीपाः स्वकेन स्वकेन आयामविष्कम्भेण भणितव्याः, नवरं द्वीपे द्वीपे उद्देशकः एवं सर्वेऽपि अष्टाविंशतिरुदेशंकाः भणितव्याः । तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति ।। सू० १ ॥ नवमस्य तृतीयादिकात्रिंशदन्ता उद्देशकाः समाप्ताः
ओ समता संपरिक्खित्ते) वह द्वीप एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है । (दोन्हं वि पमाणं वण्णओ य एवं एएणं कमेणं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंत दीवे जाव देवलोग परिगहिया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो ) इन दोनों का वर्णन और प्रमाण इस प्रकार से, इस क्रम से जैसा जीवाभिगम सूत्र में यावत् शुद्धदन्त द्वीप है, यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! इस द्वीप के मनुष्य मरकर देवगति में जाते हैं " यहां तक कहा गया है वैसा है। अर्थात् जीवाभिगम के इस सूतक इनका वर्णन जैसा जीवाभिगम में किया गया है वैसा ही वर्णन वहां से लेकर यहां पर भी करना चाहिये ( एवं अठ्ठावीसंपि अंतरदीवा सएणं सएणं आयामविक्खंभेणं भाणिय
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) इसी तरह से २८ अंतद्वीप भी अपनी २ लंबाई और चौडाई से कहना चाहिये । (नवरं दीवे दीवे उद्देमओ एवं सव्वे वि अठ्ठावीसं उद्देगा भाणियव्वा - सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति) परन्तु एक एक द्वीप में एक २ उद्देशक जानना चाहिये। इस तरह सब अन्तद्वीपोंके उद्देशक
पद्मकरवेद्विअर्थी मने 5 वनाउथी यारे तर घेरायेलो छे. ( दोन्हं वि पमाणं वण्णओ य एवं एएणं कमेणं जीवाभिगमे जाव सुद्धदत्तदीवे जाव देवलोग परिगहियाणं वे मणुया पण्णत्ता समणाउसो ) मा मन्नेनुं वार्जुन वालिगम સૂત્રમાં જે પ્રમાણે કરવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે અહીં પણ કરવું જોઇએ. આ વિષયને અનુલક્ષીને જીવાભિગમ સૂત્રમાં ડ શુદ્ધદન્ત દ્વીપ છે, આયુમન્ શ્રમણુ ! આ દ્વીપના મનુષ્ય મરીને દેવગતિમાં જાય છે. ” આ સૂત્રપાઠ चयन्तनुं के उथन उयु छे, ते स्थन सहीं अड ४२ लेहये. ( एवं अट्ठा बीसंवि अंतरदीवा सरणं सरणं आयामविक्खंभेणं भाणियव्वा ) या रीते ૨૮ અંતીઁપેામાંના પ્રત્યેકની લાંબાઇ અને પહેાળાઈ કહેવી જોઇએ.
( नवर' दीवे दीवे उद्देसओ एवं सव्वे वि अट्ठावीस उद्देसगा भाणियन्त्रा सेवं भते ! खेवं भते ! त्ति ) परन्तु प्रत्ये द्वीपन! थोड थोड उद्देश समन्व આ રીતે ૨૮ અન્તર્ધીપાના ૨૮ ઉદ્દેશકે થાય છે. ગૌતમ સ્વામી મહાવીર
श्री भगवती सूत्र : ৩