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________________ - भगवतीसूत्रे सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्ज तस्स वेयणिज्ज नियमा अत्यि' हे गौतम ! यस्य जीवस्य वेदनीयं कर्म भवति तस्य मोहनीयं स्यात् कदाचित् अस्ति भवति, स्यात् कदाचित् नास्ति न भवति, तत्र अक्षीणमोहस्य हि वेदनीयं मोहनीयं चास्ति, क्षीणमोहस्य तु वेदनीयं केवलमस्ति मोहनीय नास्तीत्याशयः, किन्तु यस्य पुनर्मोहनीय कर्म अस्ति तस्य वेदनीयमपि नियमात् नियमतोऽस्ति । गौतमः पृच्छति(गोयमा) हे गौतम ! ऐसा नियम नहीं है कि जिसके वेदनीय कर्म का सदभाव पाया जाता है उसके मोहनीय कर्म का भी सदभाव पाया जाता है, क्यों कि भगवान के वेदनीय का सद्भाव तो पाया जाता है पर मोहनीय कर्म का सद्भाव नहीं पाया जाता इसीलिये (जस्स वेय. णिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नस्थि ) सूत्रकार ने ऐसा कहा है कि जिसके वेदनीय कर्म का सद्भाव होता है उसके मोहनीय कर्म का सद्भाव होता भी है और नहीं भी होता है क्षीणमोहवीतराग भिन्न जीवों में वेदनीय के साथ मोहनीय का सद्भाव पाया ही जाता है। इसी लिये वेदनीय के साथ मोहनीय कर्म की भजना कही गई है। परन्तु (जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि ) यह नियम है कि जिस आत्मा में मोहनीय कर्म है उस आत्मा में वेदनीय कर्म अवश्य ही है। इसी बात को टीकाकार ने " अक्षीणमोहस्य हि वेदनीयं मोहनीयं चास्ति, क्षीणमोहस्य तु वेदनीयं केवलमस्ति मोहनीयं नास्ति" इस पंक्ति द्वारा स्पष्ट की है। महावीर प्रभुने। उत्तर-" गोयमा !” गौतम ! मेवा हा नियम નથી કે જે જીવમાં વેદનીય કર્મીને સદૂભાવ હોય તે જીવમાં મેહનીય કર્મને પણ સદૂભાવ જ હોય, કારણ કે કેવલી ભગવાનમાં વેદનીય કમને સદ્ભાવ તે જોવામાં આવે છે પણ તેમનામાં મોહનીય કમને સદ્ભાવ જણાતો નથી. પરન્ત ક્ષીણ મોહવાળા વીતરાગ સિવાયના જીવમાં વેદનીય કર્મની સાથે મેહનીય કર્મને પણ સદ્ભાવ જોવામાં આવે છે. આ રીતે વેદનીયની સાથે મોહનીય કર્મને સદ્ભાવ કયારેક હોય છે અને કયારેક તે નથી. એજ पात सूत्रारे । सूत्र बा२॥ व्यात रीछ-( जस्स वेयणिज्ज तस्स मोहणिज्ज' सिय अथि, सिय नस्थि ) ५२न्तु (जस्स पुण मोहणिज्ज तस्स वेयणिज्ज नियमा अत्थि ) मेवा नियम तो १३२ छ रे मामामा भानीय भना સદભાવ હોય છે, તે આત્મામાં વેદનીય કર્મને પણ અવશ્ય સદૂભાવ હોય ७. मे पात सूत्ररे “अक्षीणमोहस्य हि वेदनीयं मोहनीयं चास्ति क्षीण मोहस्य तु वेदनीयं केवलमस्ति मोहनीय नास्ति ) 2048 बा२। २५ट ४३री छे. श्री भगवती सूत्र : ७
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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