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भगवतीसूत्र जीवानां दर्शनावरणीयस्य, वेदनीयस्य, मोहनीयस्य, आयुष्यस्य, नाम्नः गोत्रस्य, आन्तरायिकस्य च कर्मणोऽनन्ता अविभागरिच्छेदाः प्रज्ञापनीयाः। गौतमः पृच्छति'एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइ. एहिं अविभागपलिच्छे रहिं आवेढियपरिवेढिए सिया' हे भदन्त ! एकैकस्य खलु जीवस्य एकैको जीवपदेशो ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः कियद्भिः अविभागपरिच्छेदैः परमाणु रूपैः निरंशांशैः आवेष्टितः आ ईषत्परिवृतः परिवेष्टितः अत्यन्तं परिवृतः स्यात् ? भगवानाह-'गोयमा ! सिय आवेढिय परिवेढिए, सिय नो आवेढियपरिवे. ढिए' हे गौतम! एकैकजीवप्रदेशो ज्ञानावरणीयकर्माविभागपरिच्छे दैः परमाणुरूपैः अर्थात् नारक से लेकर वैमानिक तक के जीवों के दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय इन कर्मप्रकृतियों के अविभागपरिच्छेद अनन्त होते हैं ऐसा जानना चाहिये अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-( एगमेगस्स गं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णागावरणिज्जस्स कम्मस्स के रइएहिं अविभागपरिच्छेहिं आवेढिए परिवेढिए सिया) हे भदन्त ! आपने एक जीव के असंख्यात प्रदेश कहे हैं-सो एक एक जीव का एक एक प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से परमाणुरूप निरंश अंशों से आवेष्टितईषत् परिवृत, परिवेष्टित-अत्यन्त परिवृत हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा सिय आवेढियपरिवेढिए, सिय नो आवेढियपरिवेढिए ) हे गौतम ! ऐसा नियम नहीं है कि एक एक जीव का एक
વૈમાનિક પર્યન્તના સમસ્ત જીના દર્શનાવરણીય, વેદનીય, મોહનીય, આયુષ્ય, નામ, ગોત્ર અને અન્તરાય, એ આઠે કર્મોના અવિભાગી પરિચ્છેદે અનંત डाय छ, सम सभा
गौतम स्वामी महावीर प्रसुन सेवा प्रश्न २ छ -( एगमेगासण भते! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स केवइएहि अविभागपरिच्छेए हिं आवेढिए परिवेढिए सिया) महन्त ! मापे मे ना मस. ખ્યાત પ્રદેશ કહ્યા છે. તે એક એક જીવને એક એક પ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય
ના કેટલા અવિભાગ પરિચ્છેદથી (પરમાણુ રૂપ નિરંશ અંશથી આવેષ્ઠિત પરિવેખિત હોય છે ? (આવેષ્ટિત એટલે સામાન્યરૂપે પરિવૃત અને પરિવેખિત એટલે અત્યન્ત પરિવૃત, આવો આ બને પદને અર્થ થાય છે.)
महावीर प्रसुन उत्तर-(गोयमा ! सिय आवेढियपरिवेढिए, सिय नो आवेदियपरिवेदिए) गीतम! मेवा नियम नथी है मे
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૭