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प्रमेयचन्द्रिका टी० श. ८ उ० १० सू० १ शीलश्रुतादिनिरूपणम् ४६१ रहितत्वात् , क्रियातत्परत्वाच्चेति भावः १, 'तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए, से णं पुरिसे असीलवं सुयवं, अणुवरए विनायधम्मे' तत्रोक्तेषु खलु चतुर्दा मध्ये यः स द्वितीयः श्रुतसम्पन्नो नो शीलसम्पन्नः पुरुषजात उक्तः स खलु पुरुषः अशीलवान् , श्रुतवान् व्यपदिश्यते, यतो हि अनुपरतः-पापादनिवृत्तः, विज्ञातधर्मा अविरतिसम्यग्दृष्टिर्भवति, सम्यग्बोधोत्पादात् , अत एवं 'एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते' हे गौतम ! एष खलु अशीलवान् श्रुतवान् पुरुषो मया देशविराधकः प्रज्ञप्तः, देश-स्तोकं-सम्यगज्ञानादिरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं चारित्रलक्षणम् अंशं विराधयतीत्यर्थः प्राप्तस्य तस्यापालनात् , प्राप्त्यजीव को ज्ञान और क्रिया दोनों से होती है सो यह ज्ञान से अनभिज्ञ रहकर केवल क्रिया के करने में ही तल्लीन रहता है अतः इसे मोक्षमार्ग के आशय का अल्परूप से आराधक कहा गया है। (तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए, से णं पुरिसे असील सुयवं अणुवरए विनायधम्मे) पूर्वोक्त चारपुरुषों के बीच में जो द्वितीय पुरुष कहा गया है कि जो श्रुतसंपन्न होता है और शीलरहित होता है-ऐसा वह पुरुष पाप से अनिवृत्त होता है, परन्तु धर्म का ज्ञाता होता है-ऐसा वह पुरुष चतु. थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि होता है । इसका ज्ञान सम्यग्यज्ञान रूप होता है। इसलिये (एस णं गोयमा! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते) हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने देशविराधक कहा है। "देशं -स्तोकं सम्यग्ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं अंशं विराधयतीति" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्यग्ज्ञानादित्रयरूप मोक्षमार्गके બન્નેની આરાધનાથી થાય છે. પરંતુ આ પહેલા પ્રકારને પુરુષ તે શાનથી અનભિજ્ઞ રહીને કેવલ ક્રિયા કરવામાં જ લીન રહે છે, તેથી તેને મોક્ષમાર્ગના भाशय। २०६५३५-(मशता) मा२।५४ ह्यो छे.
(तत्थ णं जे से दोचे पुरिस जाए, से णं पुरिसे असीलव सुयव अणुवरए विनायधम्मे ) पूरित या२ पुरुषोमाथी ने भी पुरुष ४ो छ त श्रुतवान હોય છે પણ શીલરહિત હોય છે. આ પ્રકારને પુરુષ પાપથી અનિવૃત્ત હેય છે, પણ ધર્મતત્વને જ્ઞાતા હોય છે. આ પ્રકારને પુરુષ થા ગુણસ્થાનવર્તી अविरत सम्५४ष्टि य छे. तेनुं ज्ञान सम्यज्ञान३५ ाय छे. तथी ( एसणं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराह र पण्णत्ते ) 3 गौतम ! मेवा पुरुषने में हैशविराध ४यो छे. (देश-स्तोकं सम्यग्ज्ञानादि त्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभाग. रूपं अंशं विराधयतीति ) म व्युत्पत्ति अनुसार सभ्यशान माह १५३५
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭