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________________ ४५४ भगवतीसूत्रे पातादिविरमणध्यानाध्ययनादिरूपाक्रियैव श्रेयः-अतिशयेन प्रशस्य श्लाघ्यं वर्तते प्रशस्तमित्यर्थः पुरुषार्थसाधकत्वात् , अथवा श्रेयम्-समाश्रयणीयं पुरुषार्थविशेषाथिना शीलमेवाश्रयणीयमित्यर्थः, अयमाशयः-केचित् अन्यतीथिकाः क्रियामात्रादेवाभीष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति ज्ञानन्तु निष्प्रयोजनमेव प्रतिपादयन्ति तस्य निश्चेष्टत्वात घटादिकरणप्रवृत्तौ आकाशादिपदार्थ वत् , उक्त च क्रियैव फलदा पुसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥ १॥ एवम्-'जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स - एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए ' ॥ १ ॥ ध्यान, अध्ययन आदि रूप जो शील है वही अतिशयरूप से प्रशस्य श्लाघ्य है। क्यों कि यही पुरुषार्थ का साधक है। अथवा-(सेयं ) का अर्थ पुरुषार्थ विशेष के अभिलाषी द्वारा समाश्रयणीय है । तात्पर्य कहने का यह है-कि कितनेक अन्यतीर्थिक जन क्रियामात्रसे ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है ऐसा मानते हैं। और साथमें ऐसा कहते हैं कि ज्ञान निष्प्रयोजनभूत ही है-उससे अभीष्ट अर्थ की सिद्धि नहीं होती है। क्यों कि ज्ञान निश्चेष्ट रूप होता है। जैसे घटादि करने की प्रवृत्ति में आशक पदार्थ निश्चेष्ट होता है। कहा भी है-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्री भक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् " क्रिया ही पुरुषों को फलदायक होती है, ज्ञान फलदायक नहीं होता है। क्यों कि स्त्री, भक्ष्य और भोजन के ज्ञानवाले व्यक्ति को उनका केवल ज्ञान सुखी नहीं करता है । तथा વિરમણરૂપ અને ધ્યાન, અધ્યયનરૂપ જે શીલ છે, એ જ અત્યન્ત પ્રશસ્ય साय-छे. ४२११ मेगा पुरुषार्थनुसाध छे. या “सेय"न मथ પુરુષાર્થ વિશેષના અભિલા પી દ્વારા સમાશ્રયય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે કેટલાક અન્યતીર્થિકો એવું માને છે કે કિયામાત્રથી જ અભીષ્ટ અર્થની સિદ્ધિ થાય છે. અને સાથે એવું પણ કહે છે કે જ્ઞાનનું કઈ પ્રયોજન નથી જ્ઞાન દ્વારા અભીષ્ટ અર્થની સિદ્ધિ થતી નથી. કારણ કે જ્ઞાન નિચેષ્ટ રૂપ હોય छ. धुं ५ छ 8-( क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्री भक्ष्य भोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ) " या माशुसाने हाय थाय છે, જ્ઞાન ફલદાયક થતું નથી. કારણ કે સ્ત્રી, ભક્ષ્ય અને ભેજનના જ્ઞાનવાળાને ते ज्ञान मात्र सुभी तुं नथी." तथा-- શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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