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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०८ उ० ९ सू० ६ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धवर्णनम् ३४५ अनुत्तरौपपातिक पृच्छा, तथा च तथाविधे पुनरनुत्तरौपपातिकत्वे सति अनुत्तरौपपातिकदेववैक्रियशरीरप्रयोगबन्धान्तरं कालतः शियच्चिरं भवति ? इति प्रश्न, भगवानाह-'गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एकतीसं सागरोवमाई वास पुहुत्तमब्भहियाई, उकोसेणं संखेज्जाई सागरोवमाइं' हे गौतम ! अनुसरौपपातिकदेववैक्रियशरीरपयोगस्य सर्वबन्धान्तरं जघन्येन एकत्रिंशत् सागरोपमाणि वर्ष पृथक्त्वाधिकानि भवति, उत्कृष्टेन तु संख्येयानि सागरोपमाणि भवति, 'देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई' अनुत्तरौषपातिकदेववैक्रियशरीरमयोगस्य देशवन्धान्तरं च जघन्येन वर्ष पृथक्वं भवति, उत्कृष्टेन तु संख्येयानि सागरोपमागि भवति, तथाहि-अनुत्तरौपपातिकदेववैक्रियशरीरप्रयोगस्य हुए हैं और वहां की स्थिति समाप्त हो जाने के बाद वह उस अनुत्तरविमान से अन्यत्र जन्म धारण कर फिर वहां से मर करके उसी अनुसरविमान में जन्म धारण करता है तो ऐसी स्थिति में उसके वैक्रियशरीर के बन्ध में अन्तर कितने काल का आता है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा) हे गौतम ! यहां पर वैक्रियशरीर के सर्वबंध का अंतर जघन्य से वर्षपृथक्त्व अधिक ३१ सागरोपम का है और ( उक्कोसेणं ) उत्कृष्ट से (संखेजाइं सागरोवमाई ) संख्यात सागरो. पम का है । ( देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहुत्तं ) अनुत्तरोपपातिक देव वैक्रियशरीरप्रयोगके देशबन्धका अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व है और (उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाई) उत्कृष्ट से संख्यात सागरोपम होता है । जैसे कोई जीव अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुआ-वहां उसने સમાપ્ત કરીને તે અનુત્તર વિમાન સિવાયના કોઈ અન્ય સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય અને ત્યાંથી મરીને ફરીથી અનુત્તર વિમાનમાં જ જન્મ ધારણ કરે, તે એ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેના વૈકિયશરીરના બંધમાં કેટલા કાળનું અત્તર ५डी नय छ ? महावीर प्रसुनी उत्तर-" गोयमा" गौतम ! माई मन त्यारे तेना વૈકિયશરીરના સવબંધનું અંતર જઘન્યની અપેક્ષાએ ૩૧ સાગરેપમ અને वषयत्व प्रमाण थाय छे. “उक्कोसेण संखेज्जाइं सागरोवमाई” भने अष्टनी अपेक्षा सध्यात सागरेपिनु थाय छ, “देसबधतर जहण्णेण वानपुहुत्तं उक्कोसेण संखेज्जाई सागरोवमाइं" मने ते वन। वैठियशरीरप्रयागना દેશબંધનું ઓછામાં ઓછું અન્તર વર્ષપૃથકત્વ પ્રમાણ અને વધારેમાં વધારે અંતર સંખ્યાત સાગરોપમ પ્રમાણ થાય છે. જેમ કે કોઈ જીવ અનુત્તર શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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