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प्रमेयचन्द्रिका टीका २०८ उ० ९ २०१ बन्धनिरूपणम् टीका-'काविहे णं भंते ! बंधे पण्णते?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! कतिविधः खलु बन्धः पुद्गलादिविषयः सम्बन्धः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-' गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पयोगबंधे य, वीसमाबंधे य' हे गौतम ! द्विविधबन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-प्रयोगबन्धश्च, विस्रसावन्धश्च, तत्र जीवप्रयोगकृतः प्रयोगबन्धः, स्वभावसम्पन्नो विनसाबन्धोऽवसे यः-इत्याशयः ॥ मू. १ ॥ प्रकार का कहा गया है ? (गोयमा) हे गौतम ! (दुविहे बंधे पण्णत्ते-तं जहा-पओगबंधे य, वीससा बंधे य) बंध दो प्रकार का कहा गया है।
जैसे-एक प्रयोगवध, दूसरा विनसा बंधटीकर्थ-आठवें उद्देशक के अन्त में मर्य चन्द्र आदि ज्योतिष्कदेवों की वक्तव्यता प्ररूपित हुई हैं। यह वक्तव्यता वैनसिकी रूप होती है। इसलिये वैनसिक और प्रयोगबंध को प्रतिपादन करने की इच्छा से सूत्रकार ने इस नौवें उद्देशक का प्रारंभ किया है । इसमें गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-( कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते ) हे भदन्त ! पुद्गला. दिविषयक सम्बन्धरूप बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ) हे गौतम ! (दुविहे बंधे पण्णत्ते ) पुद्गलादिविषयक सम्बन्धरूप बंध दो प्रकार का कहा गया है-(तं जहा) जो इस प्रकार से है-(पओगबंधे य, वीससाबंधे य) एक प्रयोगवन्ध, और दूसरा विस्रसाधन्ध जीवके प्रयोगसे जो बंध होता है-वह प्रयोग बन्ध है, और जो बन्ध स्वभाव से होता है वह वित्र साबंध है ॥१॥ ५॥२॥ ४॥ छ ? ( गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते-तजहा-पओगबधेय वीससाबंधे य ) गौतम ! viचना नीचे प्रमाणे ये ४२ ४॥ छ (१) प्रयोग viध भने (२) विवसाय.
ટીકાર્ય–આઠમાં ઉદ્દેશકને અને સૂર્ય, ચન્દ્ર આદિ જાતિષ્ક દેવની વક્તવ્યતાની પ્રરૂપણા કરવામાં આવી છે તે વક્તવ્યતા વિશ્વલિકી હોય છે. તેથી વૈઋસિક અને પ્રગબંધનું પ્રતિપાદન કરવાની ઈચ્છાથી સૂત્રકારે આ નવમાં ઉદ્દેશકનો પ્રારંભ કર્યો છે. ગૌતમ સ્વામી આ વિષયને અનુલક્ષીને મહાવીર प्रभुने सो प्रश्न पूछे 3 " कइ विहेणं भंते ! बंधे पण्णते १” महन्त ! પુદ્ગલાદિ વિષયક સંબંધરૂપ બંધ કેટલા પ્રકારનો કહ્યો છે ?
___ महावीर प्रभुने। उत्त२-( गोयमा ! ) 3 गौतम ! (दुविहे बधे पण्णत्ते) पदासाहि विषय समय ३५ vi मे २॥ ४॥ छ. “ तजहा "२ अरे। नीचे प्रमाणे छ-(पओगबंधे य, वीसमाबंधे य) (1) प्रयोग अने. (૨) વિસસાબંધ. જીવના પ્રયોગથી જે બંધ થાય છે, તે બંધને પ્રયોગ બંધ કહે છે. અને જે બંધ સ્વભાવથી થાય છે, તે બંધને વિશ્વસાબંધ કહે છે. સૂળ છે
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૭