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प्रमेयचन्द्रिका टी००८ ३०८ सू०५ कर्मप्रकृति - परीषद्दवर्णनम्
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केवलिनः एकादश परीषाहाः प्रज्ञप्ताः, नव पुनः परीषहान् वेदयति एकदा शीतोष्णचशय्यासु द्वयोरेव वेदनात् नववेदनमित्यर्थः 'सेसं जहा छविबंधगस्स' शेष यथाविधकर्मबन्धकस्योक्तास्तथा वक्तव्याः । गौतमः पृच्छति - ' अबंधगस्स णं भंते ! अजोगभवत्थ के किस्स कई परीसहा पण्णत्ता' हे भदन्त ! अवन्धकस्य खल अयोगिभवस्थ केवलिनः कति परिषहाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह - ' गोयमा ! एक्कारसपरसहा पण्णत्ता, नव पुणवेश्इ ' हे गौतम अबन्धकस्य चतुर्दशगुणस्थानकवर्तिनः अयोगिभवस्थ केवलिनः एकादश परीषदाः प्रज्ञप्ताः, नव पुनः परीषहान् वेदयति, तदेवाह - ' जं समयं सीयपरीसहं वेएड, नो तं समयं उसिणपरीसहं des' यस्मिन् समये शीतपरीपहम् अबन्धकः अयोगिभवस्थ केवली वेदयति, नो तस्मिन् समये उष्णपरीषदं वेदयति, एवं ' जं समयं उसिणपरीसहं वेएइ, नो तं समयं सीयपरीसहं वेएइ ' यस्मिन् समये उष्णपरीषदं वेदयति, नो तस्मिन् समये
होता है अतः वेदन ९ का कहा गया है । (सेसं जहा छव्विहबंधगस्स) इसी बात को इस सूत्र पाठ द्वारा समझाया गया है। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं - ( अबन्धगस्स णं भंते! अजोगि भवत्थ केवलिस्स कह परीसहा पण्णत्ता ) हे भदन्त ! अयोगिभवस्थ अबन्धककेवली के कितने परीषह होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( गोयमा ) हे गौतम ! ( एक्कारस परीसहा पण्णत्ता ) अयोगि भवस्थ अबन्धक केवली के ग्यारह ९१ परीषह होते हैं । परन्तु ( नवपुण वेएइ) वह वेदन नौ परीषहों का करता है। इसी बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं- ( जं समयं सीयपरीसहं वेएह, नो तं समयं उसिणपरीसहं वेएड, जं समयं उस
अरे छे, अरण शीत, उष्णु, यर्या मने शय्या, मे यार परीषहोनु थोड साथै वेहन थाय छे. मेन वातने ( सेस जहा छन्त्रिहबधगस्स ) ॥ सूत्र દ્વારા સમજાવવામાં આવી છે.
गौतभस्वाभीनो प्रश्न - ( अबधगस्त्र णं भते ! अजोगिभवत्थ केवलिस्स कई परीसहा पण्णत्ता ? ) हे लहन्त ! अयोगी लवस्थ समंध ठेवलीना કેટલા પ્રકાર કહ્યા છે. ?
भडावीर प्रभुने। उत्तर–(गोयमा !) डे गौतम ! ( एक्कारसपरीसहा पण्णत्ता १) अयोगी लवस्थ असंध ठेवलीना ११ परीषडो उह्या छे. परन्तु ( नव पुण बेएइ ) ते नव परीषडोनु' वेडन उरे छे. तेनु' भरण भतावतां सूत्रभर डे छे है-" ज' समय सोयपरीसह वेएछ, णो तं खमयं उसिणपरिसह बेएइ, " जं समय उसिणपरिसह वेएइ, नो त समय सीयपरीसह वेएइ, ज' समय
श्री भगवती सूत्र : ৩