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________________ भगवतीमत्रे जावअसंपते' यूयं खलु आत्मना स्वयमेव चैव गम्यमानम् अगतं, व्यतिक्रम्यमाणम् अव्यतिक्रान्तं राजगृहं नाम नगरं यावत् संपाप्तुकामम् असंप्राप्तं भवति इति मन्यध्व, 'तएणं ते थेरा भगवंतो अन्नउत्थिए एवं पडिहणे ति, पडिहणिना, गइप्पवायं नाम अम्झयणं पते वइंसु' ततःखलु ते स्थविरा भगवन्तः अन्ययूथिकान अन्यतीथिकान एवम् उक्तप्रकारेण प्रतिघ्नन्ति निरुत्तरान् कुर्वन्ति प्रतिहत्य निरुत्तरीकृत्य गतिप्रपातं नाम अध्ययनं प्रज्ञापितवन्तः, गतेः प्रवृत्तेः क्रियायाः प्रपातप्रपतनं स भवः प्रयोगादिष्वर्थेषु वर्तन गतिमपातस्तत्मति. पादकमध्ययनं गतिप्रपातं तत्मज्ञापितवन्तः प्ररूपितवन्तः गतिविचारपस्तावा दित्याशर : सू० २॥ अवीइक ते, रायगिहं नयरं जाव अस पत्ते' परन्तु हे आर्यो ! तुम लोग ही स्वयं इस बात को मानते हो कि जो गम्यमान होता है वह अगत होता है, जो व्यतिक्रन्यमाण होता है वह अनुल्ल धित होता है तथा प्राप्त करने की इच्छा का विषयभूत गजगृह नगर असं प्राप्त है । 'तएणं ते थेग भगवंतो अन्नउत्थिए एवं पडिहणेति, पडिहणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयण पन्नवइंसु' इस तरह से उन स्थविर भगवतों ने उन अन्ययूथिकों को निरुत्तर कर दिया. निरुत्तर करके बाद में उन्हों ने गतिप्रपात नाम का अध्ययन प्रज्ञारित किया। गति-प्रवृत्ति क्रिया इसका प्रपतन-संभव-प्रयोगादि अर्थोमें वर्तनइसका नाम है गतिप्रपात, इस गतिप्रपातका प्रतिपादक जो अध्ययन है वह गतिप्रपात है। इम गतिप्रपान अध्ययन की उन्होने प्ररूपणा इसलियेकी कि यहां पर गति के विचारका प्रकरण चल रहा है ।मू०२।। चेव गममाणे अगए, वीतिकमिज्जमाणे अबोइकते, रायगिह नयरं जाव अस पत्त' मार्यो ! तमेस पाते १ मे भानो छ। भ्यभान असताय छ, વ્યતિકમ્પમાણુ જે સ્થળ હોય છે તે અવ્યતિકાત હોય છે અને રાજગૃહ નગર પ્રાપ્ત કરવાની ઇચ્છાવાળા માટે રાજગૃહ નગર અસં પ્રાપ્ત હોય છે. 'तए णं ते थेरा भगवंतो अनउत्थिए एवं पडिहणे ति, पडिहणित्ता गइप्पवायं नाम अज्झयणं पनवइंसु' भी शत ली। शन त स्थविर भगव તએ તે પરતીર્થિકને નિરૂત્તર કરી દીધા. તેમને નિરૂત્તર કરીને તેમણે ગતિપાત નામના અધ્યયનની પ્રરૂપણ કરી. ગતિનું (પ્રવૃત્તિ અથવા ક્રિયાનું) પ્રપતન ( સંભવ પ્રયેગાદિ અર્થોમાં વર્તન) એટલે ગતિપાત આ અતિપ્રપાતનું પ્રતિપાદન કરનારૂં જે અધ્યયન છે તેને ગતિપાત અધ્યયન કહે છે. અહીં ગતિનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે, તેથી તેમણે ગતિપ્રપાત અધ્યયનની પ્રરૂપણ કરી છે સૂ૦ ૨ ॥ श्री भगवती सूत्र:
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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