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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ८ उ. २ स. १० लब्धिस्वरूपनिरूपणम् ४७३ चित त्रिज्ञानिनः मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानयोगात्, कदाचित् चतुर्सानिनः मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानयोगात्, तथा वक्तव्याः, 'केवलनाणसागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया' केबलज्ञानसाकारोपयुक्ताः जीवाः यथा केवलज्ञानलब्धिकाःएकज्ञानिनः केवलज्ञानिनः पूर्व प्रतिपादितास्तथा केवलज्ञानिनो वक्तव्याः। 'सइ अन्नाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अण्णाणाई भयणाए' मत्यज्ञानसाकारोपयुक्तानां त्रीणि अज्ञानानि मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञानलक्षणानि भजनया भवन्ति, ' एवं मुयअन्नाणसागारोवउत्तावि' एवं श्रुताज्ञानसाकारोपयुक्ता अपि भजनया व्यज्ञानिनो भवन्ति, कदाचित् मत्यज्ञानिनः, कदाचित् श्रुताज्ञानिनः कदाचित संबंधसे तीन ज्ञानवाले कहे गये हैं और कदाचित मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यवके योगसे चार ज्ञानवाले कहे गये हैं उसी प्रकार से उन्हे भी कदाचित् तीन ज्ञानवाले और कदाचित् चार ज्ञानवाले जानना चाहिये । 'केवल नाण सागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया' केवल ज्ञानरूप साकार उपयोगवाले जीव केवलज्ञानलब्धिक जैसे होते कहे गये हैं- अर्थात् इनमें एक केवलज्ञान ही होता है- अन्य ज्ञान नहीं । इसलिये ये एक केवलज्ञानसे ही ज्ञानी होते हैं, अन्य ज्ञानोंसे नहीं। 'मइ अन्नाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' जो जीव मत्यज्ञानरूप साकार उपयोगवाले होते हैं उनमें तीन अज्ञानमत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान भजनासे होते हैं- कदाचित दो अज्ञान और कदाचित् तीन अज्ञान । 'एवं सुयअन्नाण सागारोव उत्ता वि' उसी तरहसे श्रुताज्ञानरूप साकारोपयोगवाले जीवोंकाभी जानना चाहिये । अर्थात् ये भी कदाचित् दो अज्ञानवाले और कदाचित् तीन અને મન:પર્યવજ્ઞાનના યોગથી ચાર જ્ઞાનવાળા હોય છે. એ જ રીતે તેઓને પણ કદાચિત ३ जान भने ४ायित या ज्ञानवाणा सभा . 'केवलनाणसागरोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया' विज्ञान सा योगा ने उवज्ञान augatal જીની માફક સમજવા. અર્થાત્ તેઓમાં એક કેવળજ્ઞાન જ હોય છે. એટલે તેઓ એક Bाथी ज्ञानी होय छे. 'मइन्नाण सागरोन उत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' જે જીવ મત્યજ્ઞાનરૂપ સાકાર ઉપયોગવાળા હોય છે. તેમાં મત્યજ્ઞાન, કૃતાજ્ઞાન અને વિર્ભાગજ્ઞાન એ ત્રણ અજ્ઞાન ભજનાથી હોય છે. એટલે કેઈવાર બે અજ્ઞાન અને કોઈવાર ऋण अज्ञान हाय छे. 'एवं सुयअन्नाणसागरोवउत्ता वि मे शत श्राज्ञानરૂપ સાકારપગવાળા જીવોને પણ સમજવા. અર્થાત્ એ પણ કેઈવાર બે અજ્ઞાનવાળા श्री भगवती सूत्र :
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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