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________________ - ९८ भगवतीमूने कषायरसपरिणता अपि, अम्लरसपरिणता अपि, मधुररसपरिणता अपि भवन्ति । तथा 'फासो कक्खडफासपरि. जाव लुक्खफोसपरि०' ये अपर्याप्तकक्ष्मपृथिवीकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः पुद्गलाः प्रज्ञप्ता स्ते स्पर्शतः कर्कशस्पर्शपरिणता अपि, यावत्-मृदुस्पर्शपरिणता अपि, गुरुस्पर्शपरिणता अपि, लघुस्पर्श परिणता अपि, शीतस्पर्श परिणता अपि, उष्णस्पर्श परिणता अपि, स्निग्धस्पर्शपरिणता अपि, रूक्षस्पर्शपरिणता अपि भवन्ति । तथैव 'संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि, वदृ० तंस, चउरंस० आययसंठाणपरिणयावि' ये अपयाप्तवक्ष्मपृथिवीकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः पुद्गलाः प्रज्ञप्तास्ते संस्थानतः रसकी अपेक्षा से तिक्त रसमें परिणत होते हैं या हो जाते हैं-अन्यत्र भी इसी प्रकार से समझना चाहिये कटुकरस में परिणत हो जाते हैं, कषाय रसरूप में भी परिणत हो जाते हैं, अम्ल (खट्टा) रसरूप में भी परिणत हो जाते हैं, मधुररसरूप में भी परिणत हो जाते हैं। तथा 'फासओ कक्खडफासपरि० जाव लुक्खफासपरि०) वे ही पुद्गल जो अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथिवीकायिक एकेन्द्रियके प्रयोग से परिणत कहे गये हैं स्पर्शकी अपेक्षा से कर्कशस्पर्शरूपमें भी परिणत हो जाते हैं, यावत्-मृदु (कोमल) स्पर्शरूप में भी परिणत हो जाते हैं, गुरुस्पर्शरूप में भी परिणत हो जाते हैं, लघुस्पर्शरूप में भी परिणत हो जाते हैं, शीतस्पर्शरूप में भी परिणत हो जाते हैं, उष्णस्पर्शरूपमें भी परिणत हो जाते हैं, स्निग्धस्पर्शरूपमें भी परिणत हो जाते हैं, रूक्षस्पर्शरूप में भी परिणत हो जाते है । (संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणया वि, वट्ट०, तस०, चउरंस० आययसंठाणपरिणयावि' तथा वे ही पुद्गल जो अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक एकेन्द्रियके प्रयोग से परिणत हुए कहे गये हैं, संस्थानकी अपेक्षा से રસરૂપે પણ પરિણમી જાય છે, કડવા રસરૂપે પણ પરિણમી જાય છે, કષાય (તરા) રસરૂપે પણ પરિણમી જાય છે, ખાટા રસરૂપે પણ પરિણમી જાય છે અને મધુર રસરૂપે ५६५ परिणभी तय छे. तया 'फासओ कक्खड फास परि० जाव लुक्खफास ળિયા એ જ અપર્યાપ્તક સૂક્ષમ પૃથ્વીકાયિક એકેનિદ્રયના પ્રયોગથી પરિણત થયેલાં પુદગલ, સ્પર્શની અપેક્ષાએ કર્કશ સ્પર્શરૂપે પણ પરિણમે છે, મૃદુ કેમલ સ્પર્શરૂપે પણ પરિણમે છે, ગુરુ સ્પર્શરૂપે પણ પરિણમે છે, લઘુ સ્પર્શરૂપે પણ પરિણમે છે, શીત પર્શરૂપે પણ પરિણમે છે, ઉષ્ણુ સ્પર્શરૂપે પણ પરિણમે છે. સ્નિગ્ધ (સુંવાળા) સ્પર્શરૂપે ५५ परिभ छ भने ३६ (43441) २५५३३ ५५ परिशुभेछ. 'संठाणभो परिमंडलसंठाणपरिणया वि, बट्ट, तंस०, चउरंस०, आययसंठाणपरिणया वि' श्री. भगवती सूत्र :
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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