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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.१० सू.४ अग्निकायविषये पुरुषद्वयक्रियावर्णनम् ८३७ अग्निकायनिर्वापकः पुरुषः अल्पकर्मतरकश्चैव, यावत् - अल्पक्रियतरकश्चैव, अल्पास्रवतरकश्चैव अल्पवेदनतरकश्चैव भवति । कालोदायी पृच्छति-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-तत्थ णं जे से पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चेव?' हे भदन्त ! तत् केनार्थन-कथ तावत् एवमुच्यते-तत्र खलु यः स पुरुषः यावत् अग्निकायमुज्ज्वलयति स महाकर्मादियुक्तः, यस्तु अग्निकाय निर्वापयति स अल्पकर्मादिविशिष्टः अल्प वेदनविशिष्टौव ? इति, भगवानाह'कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकाय उज्जालेइ' हे कालोदायिन् ! तत्र तयोर्मध्ये खलु यः स पुरुषः अग्निकायम् उज्ज्वलयति 'से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकाय समारंभइ, बहुतरागं आउकाय' समारंभइ' स खलु पुरुषः बहुतरकं पृथिवीकार्य समारभते विराधयति, बहुतरकम् अकार्य होगा, अल्प आरंभिकी आदि क्रियाओंवाला होगा अल्प आस्रववाला होगा और अल्पवेदनावाला होगा, अब कालोदायी प्रभुसे ऐसा पूछ रहे हैं कि 'से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ तत्थ णं जेसे पुरिसे जाव अप्पवेयणतराए चेव' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारणसे कहते हैं कि जो पुरुष यावत् अग्निकाय को जलाता है वह महाकर्मसे युक्त होता है, तथा जो अग्निकायको बुझाता है वह अल्पकर्म से युक्त होता है ? इस पर प्रभु उत्तर देते हुए उनसे कहते हैं 'कालोदाई हे 'कालोदायिन् ! तत्थणं जेसे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ' इन दोनों पुरुषों के बीचमें जो पुरुष अग्निकायको जलाता है 'से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारंभइ, बहुतरागं आउक्काय समारंभइ' वह पुरुष बहुतर पृथिवीकायका समारंभ करता है बहुतर अपकायका समारंभ करता है - હવે કાલેદાયી તેનું કારણ જાણવાની જિજ્ઞાસાથી મહાવીર પ્રભુને આ પ્રમાણે प्रश्न पूछे छ- 'से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ - तत्थणं जे से पुरिसे जाव अप्प वेयणतराए चेव ?' महन्त ! सा५ । २२ मे ४ छ। ३ रे पुरुष અગ્નિકાયને સળગાવે છે, તે પુરુષ મહાકર્મ આદિથી યુક્ત થશે અને જે પુરુષ અગ્નિકાયને ઓલવે છે, તે અલ્પકમ આદિથી યુક્ત થશે? तेन ७।२११ समन्तवता मडावी२ प्रभु ४३ छ - 'कालोदाई, सहायी ! 'तत्थणं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ, ' रे पुरुष मभिप्रायने प्रशसित ४२ छ, 'से णं पुरिसे बहतरागं पुढवीकाय समारंभइ, बहुतरागं आउक्काय समारंभह, ते पुरुष ! पृथ्वीजयिहानी समान रे छे. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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