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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.९ म. ५ वरुणनागनप्लकवर्णनम् ७४५ 'अभिमुहा चेव' अभिमुखा एव सम्मुखाः 'पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति' प्रहताः सन्तः कालमासे-मरणसमये कालं कृत्वा मरणधर्म प्राप्य अन्यतरेषु अन्यतमेषु देवलोकेषु देवतया देवत्वेन उपपत्तारः उपपन्ना भवन्ति- 'से कहमेय भंते ! एवं' हे भदन्त ! तत् कथमेतत् एवम् ? तत् किम् एवं भवितुमर्हति ? तेषामेवं कथनं किं सत्यमिति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा ! जणं. से बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ-जाव उववत्तारो भवंति' हे गौतम ! यत् खलु स बहुजनः अन्योन्यं परस्परम् एवं = वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्याति, यावत्प्ररूपयति यत् बहवो मनुष्याः संग्रामेषु अभिमुखा एवं प्रहताः सन्तः कालं. कृत्वा देवलोकेषु देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति-इति, 'जे ते एवमाहंसु मि. अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु' कि अनेक मनुष्य अनेक प्रकार के संग्रामों में से किसी एक संग्राममें 'अभिमुहाचेव' जो लडते२ 'पहया समाणा कालमासे काल किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति' हत होकर काल अवसर कालकरके मरजाते हैं, वे देवलोकोंमें से किसी एक देवलोकमें देवकी पर्यायसे उत्पन्न हो जाते हैं । सो 'कहमेयं भंते ! एवं' हे भदन्त ! ऐसा उनका यह कहना क्या सत्य है ? इसके उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम ! 'जण्णं से बहुजणो अण्णमण्णस्स एवं आइक्वई' जो वे अनेकजन आपसमें ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि अनेक मनुष्य अनेक संग्रामों में से किसी एक संग्राममें समक्ष लडते२ मर जाते हैं वे देवलोकमें से किसी एक देवलोकमें जाकर देवकी पर्याय से उत्पन्न हो जाते हैं 'जे ते एवमासु मिच्छा ते एवमासु' सो 'एवं खलु बहवे मणुस्सा अन्नयरेसु उच्चावएसु संगामेसु' भने: मनुष्यो भने आना सामोमाथी छौ ४ सयाममा 'अभिमुहाचेव' asdi ashi 'पहया समाणा कालमासे काल किच्चा अन्नयरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवति' ઘાયલ થઈને કાળને અવસર આવતા કાળધર્મને પામે છે ત્યારે તેઓ દેવલોકમાં દેવની पर्याय उत्पन्न थाय छे. 'कहमेय भंते ! एवं' महन्त ! शुं तमनी से मान्यता साया छ ? तनी उत्तर मापता मडावीर प्रमु ४ छ- (गोयमा !) ड गौतम ! 'जण्ण से बहजणो अण्णमण्णस्स एवं आइक्ख' त भनुष्यो मे भीतने मे જે કહે છે, ભાષણ કરે છે, પ્રજ્ઞાપના કરે છે અને પ્રરૂપણ કરે છે કે જે લેકે કેઇ પણ સંગ્રામમાં લડતાં લડતાં માર્યા જાય છે, તેઓ કોઈ પણ એક દેવલોકમાં દેવની શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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