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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ.९ सू.५ वरुणनागनप्तृकचरित्रम् ७४३ षधोपवासाः, तानि खलु ममापि भवन्तु इतिकृत्वा सन्नाहपी मुञ्चति, सन्नाहपट्ट मुक्त्वा शल्योद्धनणं करोति, शल्योद्धरणं कृत्वा आनुपूर्व्या कालगतः। ततः खलु तं वरुणं नागनप्तृकं कालगतं ज्ञात्वा यथासन्निहितैः वानव्यन्तः देवैः दिव्या सुरभिगंधोदकवर्षा वृष्टा, दशार्धवणं कुसुमं निपातितम्, दिव्यश्च गीतगन्धर्वनिनादः कृतश्चापि अभवत् । ततः खलु तस्य वरुणस्य नागनप्तकस्य तां दिव्यां देवर्द्धिम्, दिव्यां देवद्युतिम् , दिव्यं देवानुभागं हैं, ३ तीन गुण हैं, विरमणव्रत तथा प्रत्याख्यान और पोषधोपवास हैं, वे सब मुझे भी हों (त्तिकटु सम्बाहपढें मुयइ) इस प्रकार कह कर उसने अपने सन्नाइपट्ट-कवच को शरीर से उतार कर रख दिया (सन्नाहपट्टयं मुइत्ता सल्लुद्धरणं करेइ, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुव्वीए कालगए) सन्नाहपट्ट को रखकर फिर उसने अपने शरीर में से शल्ल-बाण आदि को निकाला और फिर वह क्रमशः कालधर्म को प्राप्त हो गया (तएणं तं वरुणं णागणत्तुयं कालगयं जाणित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं दिव्वे सुरभिगंधो-दगवासे खुढे) इस के बाद नाग के नाती वरुण को मरा हुआ जानकर पास में रहे हुए वानव्यन्तर देवोंने दिव्य एवं सुगंधी जल की वर्षा की (दसद्धवन्ने कुसुमे निवाडिए, दिवे य गीय-गंधवनिनादे कए यावि होत्था) पाँच प्रकार के वर्णवाले कुसुमों को उसके ऊपर वरसाया. दिव्य गीत गान्धर्वका शब्द भी उन्हों ने किया (तएणं तरू वरुणस्स णागणत्तुयस्स तं दिव्वं देविडूिं दिव्वं देवज्जुई दिव्वं पोषधोपवास 24°08२ ४२५ छे, ते ५५ ADMR ४३ छु' तिकट्ट सन्नाहपट्ट मयड) २मा प्रभारी डीन ते शश२ ५२थी क्यने उतारी नाण्यु. सन्नाहपट्टय मुइना सल्लुद्धरणं करेइ, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुवीए कालगए) क्य ઉતારીને તેણે પિતાના શરીરમાંથી બાણ આદિને કાઢયા અને ત્યારબાદ ક્રમશ: તે यम पाभ्या. (तएण त वरुण णागणत्तुयं कालगय जाणित्ता जहासन्निहि पहिचाणमतरेहिं देवेहिं दिव्वे सरभिगंधोदगवासे वढे) त्या२६ नागपौत्र वरुणना મૃત્યુની ખબર જાણીને પાસે રહેલા વાનવ્યન્તર દેવેએ દિવ્ય અને સુગંધયુકત જળની वर्षा ४ी. (दसवण्णे कुसुमे निवाडिए; दिव्वे य गीय - गंधवनिनादे कए याबि होत्था) पांय प्रा२ना १fani योनी तन ५२ वृष्टि ४२री, दिव्य old गाधना श६ ५७५ ४ा. (तएण तस्स वरुणस्स णागणत्तुयस्स त दिव्य देविडिं શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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