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________________ - ४७४ भगवतीसने वा निर्जरयन्ति न तदेव वेदयन्ति । गौतमः पृच्छति-'से केणगुणं भंते ! एवं घुञ्चइ जाब नो तं वेदेति ?' हे भदन्त ! तत् केनार्थेन एव मुच्यते-यावत्यत् वेदयन्ति न तद् निर्जरयन्ति, तद् वेदयन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! कम्मं वेदेति, नो कम्म निज्जरेंति' हे गौतम ! कर्मवेदयन्ति, नो कर्म निर्जरयन्ति, तदुपसंहरति-से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति' हे गौतम ! तत् तेनार्थेन वेदनानिर्जरयोविभिन्न विषयरूपतया यावत्-यद् वेदयन्ति न तद् निर्जरयन्ति, यद् निर्जरयन्ति न तद् वेदयन्ति, "एवं जिस समय कर्म की निर्जरा होती है उस समय कर्म का वेदन नहीं होता है क्यों कि निर्जराका काल और कर्म के वेदनकाकाल भिन्नर कहा गया है । इसी बातको गौतम प्रभुसे पूछते हैं कि 'से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव णो तं वेदेति' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जिस जिस कर्मका वेदन करते हैं वे उसकी निर्जरा नहीं करते हैं और जिस कर्मका वे निर्जरा करते हैं, उस कर्मका वेदन नहीं करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'कम्मं वेदेति, नो कम्मं निज्जरेंति' जीव कर्म का तो वेदन करते हैं और नोकर्म की वे निर्जरा करते हैं। से तेणढणं' इस कारण 'गोयमा' हे गौतम ! 'जीव नो तं वेदेति' 'वेदना और निर्जरामें भिन्न विषयरूपता होनेके कारण जीव जिस कर्मका वेदन करते हैं उसी कर्म की वे निर्जरा नहीं करते हैं और जिसकर्म की निर्जरा करते हैं उसी कर्म का वे वेदन नहीं करते हैं । ‘एवं नेरઅને કર્મના વેદનને કળ ભિન્ન ભિન્ન કહેલ છે. એ જ વાતને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી भडावीर प्रभुने पूछे छे 'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव णो तं वेदेति' ? હે ભદન્ત! એવું આ૫ શા કારણે કહે છે કે જીવો જે કર્મનું વેદન કરે છે તે કર્મની નિર્જરા કરતા નથી, અને તેઓ જે કમની નિજર કરે છે. તેનું વેદન કરતા નથી ? उत्तर- 'गोयमा के गौतम ! कम्मं वेदेति, नो कम्मं निज्जरेंति ७१ मनु वेहन ४२ छ भने नभनी यो नि २ रे छे. 'से तेणट्रेणं गोयमा' हे गौतम! ते २९) 'जाव नो तं वेदेति' में मेवु यु छ : वेदना અને નિર્જરામાં ભિન્ન વિષયરૂપતા હોવાથી જીવો જે કર્મનું વેદન કરે છે, એ જ કમની નિર્જર કરતા નથી, અને તેઓ જે કર્મની નિર્જરા કરે છે, એ જ કમનું પેદન કરતા नथी. मा विषयनु वधु २५ष्टी४२६५ 8५२ ४२वामा माव्यु छ. 'एवं नेरइया वि શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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