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________________ प्रमेवचन्द्रिका टीका श. ७ उ. १ सू. ४ श्रमणोपासकक्रियास्वरूपनिरूपणम् २७१ देशविरतिमतः श्रावकस्य संकल्पपूर्वकं वधप्रत्याख्यानं भवति, अत एव यावत्कालं यः पूर्ववमत्याख्यानं कृत्वा संकल्पपूर्वकं हनने प्रवृत्तिं न कुर्यात् तावत्कालं तस्य तद्व्रतखण्डनदोषो न जायते । अथ वनस्पतिविषये गौतमः पृच्छति'समणोवासयस्स णं भंते ! पुव्वामेव वणस्स समारंभे पच्चक्खाए ' हे भदन्त ! श्रमणोपासकस्य खलु पूर्वमेव वनस्पतिकायिकजीववधः प्रत्याख्यातः, ' से यपुढचं खणमाणे अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेज्जा' स च वनस्पतिकायिकजीववधप्रत्याख्याता पृथिवीं खनन् अन्यतरस्य = एकतरस्य कस्यचित् वृक्षस्य मूलं छिन्द्यात् अनवधानात्, 'से णं भंते ! तं वयं अइचरइ ?' हे भदन्त ! स खलु एकतरसंकल्पपूर्वक प्रवृत्तिवाला नहीं हुआ है । देशविरति श्रावक जो सजीवों की हिंसा का त्याग करता है वह मैं त्रसजीव की हिंसा संकल्पपूर्वक जानबुझकर नहीं करूंगा - इस रूप से ही उस त्रस हिंसाका त्याग करता है इसलिये देशविरति श्रावक पहिले वध (हिंसा) का प्रत्याख्यान करके भी जबतक संकल्पपूर्वक श्रसहिंसा में प्रवृत्ति नहीं करता हैं तबतक उसके व्रत का खंडन नहीं होता है- अब वनस्पति के विषय में गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि 'समणोवासयस्स णं भंते ! पुव्वामेव वणस्सइस मारंमे पच्चक्खाए' हे भदन्त ! जिस श्रमणोपासक श्रावक ने पहिले से ही वनस्पतिकायिक जीव का वध करना प्रत्याख्यात कर दिया है- छोड दिया है-' से पुढविंणमाणे अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेज्जा' ऐसे उस श्रावक से पृथिवी खोदते समय यदि किसी एक वृक्ष के मूल का अनवधानता वश (असावधानता) से छेदन हो जाता है 'से णं भंते ! तं वयं अइचरइ' तो क्या ऐसी स्थिति में वह एकतरवृक्षमूलछेत्ता तहूती श्रावक, વધના પ્રત્યાખ્યાન કર્યાં હોય છે, તે જ્યાં સુધી જાણી જોઇને ત્રસહિંસા કરતા નથી, ત્યાં સુધી તેના વ્રતના ભંગ થતા નથી. આ वणस्स समारंभे હવે ગૌતમ સ્વામી વનસ્પતિના વિષયમાં મહાવીર પ્રભુને 'समणोवासयस्स णं भंते ! पुव्वामेव ‘હે ભદન્ત! જે શ્રમણે પાસકે (શ્રાવકે) પહેલેથી જ વનસ્પતિકાયિક ४श्वानुं व्रत पुरेषु' होय, ' से य पुढत्रिं खणमाणे अण्णयरस्स छिंदेज्जा' वा श्राव वडे, पृथ्वीने मोहतां मोहतां मलता लय से णं भंते! तं वयं अइचरइ ?' तो शुं ते श्रावश्ना વધના પ્રત્યાખ્યાન રૂપ વ્રતના ભંગ થાય છે ખરા? શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછે છે पच्चक्खाए વાના વધ ન 9 रुक्खस्स मूलं वृक्षनुं भूज वनस्यति अयिष्ठ
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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