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प्रमेयचन्द्रिकाटीका श.७ उ.१ सू.२ लोकसंस्थानस्वरूपनिरूपणम् २५९ उत्पन्नज्ञान-दर्शनधरः अर्हन जिनः केवली जीवानपि जानाति, पश्यति, अ. जीवानपि जानाति, पश्यति, ततः पश्चात् सिध्यति, यावत्-अन्तं करोति ॥सू०२॥ ___टीका-जीवानामाहारकत्वमनाहारकत्वं च विशेषतो लोके भवतीति लोकसंस्थानवक्तव्यतामाह-'सिंठिए णं' इत्यादि । 'किंसंठिए णे भंते ! लोए पण्णत्ते ?' हे भदन्त ! किंसंस्थितः किंसंस्थानः किमाकारः खलु लोकः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-'गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए लोए पण्णत्ते' हे गौतम ! सुप्रतिष्ठकसंस्थितः मुमतिष्ठकम्--उपरिस्थापितकलशः अधोमुखशरावः तद्वत् संस्थितोलोकमें ( उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली ) उत्पन्नज्ञान दर्शनवाले अर्हन्तजिन केवली (जीवे वि जाणइ पासइ, अजीवेवि जाणइ पासइ तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ) जीवोंकोभी जानते हैं
और देखते हैं, अजीवोंको भी जानते और देखते हैं । इस के बाद फिर वे सिद्ध हो जाते हैं यावत् सब दुःखो का अन्त करनेवाले हो जाते हैं ।
टीकार्थ- जीवों में आहारकता और अनाहारकता विशेषरूप से लोक में होती है इस लिये सूत्रकारने यहां परलोक के संस्थान की वक्तव्यता कही है- इस में गौतम स्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा हैकि- 'किंसंठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते' हे भदन्त ! लोक का संस्थान कैसा कहा गया है ? उत्तरमें प्रभुने कहा है कि 'गोयमा' हे गौतम! सुपइगठिए लोए पण्णत्ते' सुप्रतिष्टक संस्थित लोक कहा गया हैतात्पर्य यह है कि नीचे अधोमुख करके एक मिट्टीका दीपक रख बोभा (उप्पण्णनाणदसणधरे अरहा जिणे केवली ) उत्पन्न सान. - Nal [ar aal (जीवे वि जाणइ पासइ, अजीवे वि जाण पासइ तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंतं करेइ) वोने पy छ भने तु है, मवाने ५y and છે અને દેખે છે. ત્યાર બાદ તેઓ સિદ્ધપદને પામે છે અને સમરત દુઃખના અંતક બને છે.
ટીકાર્થ– જીવોમાં આહારકતા અને અનાહરકતા વિશેષ રૂપે લેકમાં જ હોય છે, તેથી સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં લેકના સંસ્થાન (આકાર)નું નિરૂપણ કર્યું છે. આ વિષયને मनुसक्षीने गौतम स्वामी महावीर प्रभुने । न पूछे छ, 'किंसंठिएणं भंते ! लोए पण्णत्ते' मन्त! दोन म२ वा त्यो छे ? गौतम स्वामीना प्रश्न उत्तर मापता महावीर प्रभु छ - 'गोयमा!! गौतम ! 'सुपइगठिए लोए पण्णने' सुप्रति 83 सस्थित (मारना) a४ ४ो छ तेन તાત્પર્ય નીચે પ્રમાણે છે- એક શર્કરાને અથવા દીવો કરવાના માટીના કેડિયાને નીચે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫