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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.६ उ.१० सू.५ केवलिनोऽनिंद्रियत्वनिरूपणम् २३५ णो इणढे समढे' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः केवली इन्द्रियद्वारा न जानाति न पश्यति' गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-'से केणढे णं' तत् केनार्थेन ! कथमेवमुच्यते केवली अदान जानाति न पश्यति' कथं न केवलिनो वस्तुज्ञाने इन्द्रियावश्यकत्वमिति प्रश्नः, भगवानाह--'गोयमा! केवली णं पुरस्थिमेणं मियंपि जाणइ, अमियपि जाणइ' हे गौतम ! केवली खलु पौरस्त्ये पूर्वदिग्भागे मितं परिमितमपि सावधिकम् एकेन्द्रियादिपश्चेन्द्रियपर्यन्तं जानाति, अमितम् जाते हैं वे आदान हैं ऐसे आदानपद्वाच्य यहां पर इन्द्रियां कही गई हैं। इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं 'गोयमा' हे गौतमं! 'णो इणढे समढे यह अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात् केवलि भगवान् इन्द्रियों द्वारा जानते देखते नहीं हैं अब गौतम इस विषय में कारण जानने की इच्छासे प्रभुसे पूछते हैं कि-'से केणद्वेणं' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि केवली भगवान् इन्द्रियों द्वारा जानते देखतें नहीं है ? इसके उत्तरमें प्रभु उनसे कहते हैं कि केवली गं पुरथिमे णं मियंपि जाणइ अमियपि जाणइ' हे गौतम ! केवली भगवान् को वस्तुज्ञान में जो इन्द्रियोंकी आवश्यकता नहीं होती है अर्थात् केवली भगवानका ज्ञान और दर्शन इन्द्रियोंकी सहायता से जो रहित होता है उसका कारण यह है कि ये पूर्वदिग्भाग में स्थित मित एकेन्द्रिय से लेकर पश्चेन्द्रिय तकके समस्त जीवादिकपदार्थों को जानते हैं પ્રમાણે જેના દ્વારા પદાર્થને ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, તેને આદાન કહે છે. અહીં ઈન્દ્રિયોને એવા આદાનપદના વારૂપે ગણવામાં આવી છે. गौतम स्वामीना प्रश्न उत्तर मापता महावीर प्रभु ४ छ 'णो इणने समद्रे હે ગૌતમ! એવું સંભવી શકતું નથી. કેવલી ભગવાન ઇન્દ્રિયો દ્વારા જાણતા દેખતા નથી. હવે તેનું કારણ જાણવાને માટે ગૌતમ સ્વામી આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછે છે'से केणट्रेणं.?' 3 महन्त ! मे मा५ । १२0 ४ा छ। उक्षी भगवान ઇન્દ્રિ દ્વારા જાણતા-દેખતા નથી? गौतम स्वामीना प्रश्न उत्तर सापता महावीर प्रमुछे'केवली गं पुरत्थिमे णं मियापि जाणइ, अमियपि जाणइ' हे गौतम ! सापानने વતુરાનમાં ઇન્દ્રિયની આવશ્યકતા રહેતી નથી–એટલે કે કેવલી ભગવાનનું જ્ઞાન અને દર્શન ઇન્દ્રિયની સહાયતાથી જે રહિત હોય છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે- કેવલી ભગવાન પૂર્વ દિભાગમાં રહેલા મિત– એકેન્દ્રિયથી લઈને પંચેન્દ્રિય સુધીના સમસ્ત શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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