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________________ २१८ भगवतीसूत्रे सर्वस्यैव प्राणधारणधर्मकत्वात, यस्तु जीवति प्राणान् धारयति स पुन:स्यात् कदाचित नैरयिको भवेत् स्यात् कदाचित् न नैरयिकः नैरयिकभिन्नोऽपि भवेत् प्राणधारणस्य सर्वेषां सद्भावात् । ' एवं दंडओ णेयब्वो जाववैमाणियाणं' एवं दण्डको ज्ञातव्यः यावत्- ( वैमानिकानाम्, गौतमः पृच्छति - 'भवसिद्धिए णं भंते ! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए ? ' हे भदन्त ! यो भवसिद्धिकः स खलु नैरयिको भवति, यश्च खलु नैरयिकः स भवसिद्धिको भवति ! भगवानाह - 'गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए, नेरइए वियसिय भवसिद्धिए, सिय अभवसिद्धिए' हे गौतम ! भवसिद्धिकः स्यात् कदाचित् जीता है क्यों कि सब ही संसारी जीव धर्मवाले हैं । पर जो जीता है- प्राणों को नैरयिक भी हो सकता है और नैरयिक अर्थात् नैरयिक से भिन्न भी हो सकता है धारण करने रूप धर्मका सबमें सद्भाव पाया जाता है। 'एवं दंडओ यच्चो जाव वेमाणियाण' इसी तरह से दण्डक यावत् वैमानिकों तकका जानना चाहिये । अब गौतम पूछते हैं- 'भवसिद्धिएणं भंते ! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए' हे भदन्त ! जो भवसिद्धक होता है, वह नैरfयक होता है या जो नैरयिक होता है वह भवसिद्धिक होता है? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतमसे कहते हैं कि - 'गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए सिय अनेरइए' हे गौतम! जो भवसिद्धिक होता है कदाचित् नैरयिक भी हो सकता है और कदाचित् अनैरનિયમથી જ પ્રાણેને ધારણ કરવારૂપ જીવન જીવે છે, કારણુ કે સમસ્ત સંસારી જીવે પ્રાણુ ધારણ કરવારૂપ ધ વાળા હેાય છે. પણ જે જીવે છે, પ્રાણાને ધારણ કરે છે— તે નૈરિયક પણ હાઈ શકે છે અને નૈરયિકથી ભિન્ન પર્યાયવાળા પણ હાઇ શકે છે, કારણ કે आशाने धारण ४२वा३५ धर्मनी सद्भाव तो मधी पर्यायामां होय छे. ' एवं दंडओ धारण नहीं भी हो । क्यों कि प्राण धारण करने रूप करता है - वह सकता है प्राणों को " यो जात्र वेमाणियाणं' प्रमाणे वैभानिङ पर्यन्तना होना विषयभां સમજવું. હવે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે કે- भवसिद्धिएणं भंते ! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए ? ' हे लहन्त ! नेभवसिध्धिम होय हे ते नैरि હાય છે, કે જે નૈરિયક હોય છે તે ભવિસધ્ધિક હાય છે ? उत्तर- 'गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए सिय अनेरइए ' हे गौतम! જે ભવસિઘ્ધિક હોય તે કયારેક ઔચિક પણ હાઇ શકે છે અને કયારેક અનૈચિ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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