________________
२१२
भगवतीसत्रे वैमानिकानाम् । भवसिद्धिकः खल्ल भदन्त ! नरयिकः, नैरयिको भवसिद्धिकः गौतम ! भवसिद्धिकः स्याद् नैरयिकः, स्याद् अनरयिका, नैरयिकोऽपि च स्याद् भवसिद्धिकः, स्याद् अभवसिद्धिकः । एवं दण्डको यावद्-वैमानिकानाम् ।। सू. २
टीका-जीवाधिकारात तदविशेषवक्तव्यतामाह-'जीवे णं भंते' इत्यादि । 'जीवेणं भंते ! जीवे, जीवे जीवे' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! जीवः खलु को धारण करता है, पर जो प्राणांको धारण करता है वह नैरयिक होता भी है और नहीं भी होता है (एवं दडओ णेयन्वो जाव वेमाणियाण) इसी तरहसे दण्डक यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये। ( भवसिद्धिएणं भंते! नेरइए, नेरइए भवसिद्धिए ) हे भदन्त ! जो भवसिद्धिक होता है वह नैरयिक होता है कि जो नैरयिक होता है वह भवसिद्धिक होता है ? (गोयमा) हे गौतम! (भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए, नेरइए वि य सिय भवसिद्धिए सिय अभवसिद्धिए' जो भवसिद्धिक होता है वह नैरयिक भी हो सकता है और अनैरयिक भी हो सकता है। तथा जो नैरयिक होता है वह भवसिद्धिक भी होता है और अभयसिद्धिक भी होता है । "एवं दंडओ जाव वेमाणियाण' इसी तरहसे दण्डक यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये।
टीकार्थ-जीच का अधिकार चल रहा है इसलिये सूत्रकार जीव के विषय में विशेष बक्तव्यता का कथन कर रहे है- इसमें गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है कि 'भंते !' हे भदन्त ! 'जीवेणं भंते जीवे, जीवे (एवं डओ णेयव्वा जाव वेमाणियाणं ) मे०४ प्रमाणे वैमानि ५-तना ६.४४ सभा [ भवसिद्धिएणं भंते ! नेरइए नेरइए भवसिद्धिए ?] હે ભદન્ત ! જે ભવસિંહિક હોય છે તે નૈરયિક હોય છે, કે જે નરયિક હોય તે ભવસિહિક डाय छे ? [गोयमा !] 3 गौतम ! [भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए, नेरइए चि य सिय भवसिद्धिए सिय अभवसिद्धिए 12 अवसि४ि डाय छे ते નરયિક પણ હોઈ શકે છે અને અનૈરિક પણ હોઈ શકે છે, તથા જે નારક હોય છે તે मसि पडा छ भने मासिधि पY 3 : छ. [एव दंडओ जाव वैमाणियाणं ] मे प्रमाणे मानिस -तना ६४ ५९समपा.
- ટીકર્થ– જીવને અધિકાર ચાલી રહ્યો છે, તેથી સૂત્રકાર છવના વિષયમાં વિશેષ વકતવ્યતાનું કથન કરે છે– ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે 'ते, महन्त ! 'जीवेणं भंते जीवे. जीवे जीवे त न्य३५ छ, यतन्य
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫