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________________ अमेयचन्द्रिकाटीका श.६ उ.८ मू.१ पृथिवीस्वरूपनिरूपणम् १०७ निरूपणं भणितव्यम्-वक्तव्यम्, किन्तु 'णवरं-देवो वि पकरेइ असुरो चि पकरेइ, णो णागे पकरेइ' हे गौतम ! नवरम-विशेषस्तु रत्नप्रभा-शकराप्रभापेक्षया वालुकाप्रभायां पृथिव्यां मेघानाम् संस्वेदनादिकं देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि पकरोति, किन्तु नागो न प्रकरोति, अत एवानुमीयते यत् तृतीयस्यां पृथिव्यां नागकुमारस्य गमनं न संभवति । 'चउत्थीए वि एवं ' चतुर्थ्यामपि पङ्कप्रभायां पृथिव्याम् एवं रत्नप्रभादिवदेव गेहादि प्ररूपणं भणितव्यम् किन्तु ‘णवरं--देवों एको पकरेइ णो असुरो, णो णागो पकरेइ' नवरं--विशेषस्तु रत्नप्रभादि पृथिवी त्रितयापेक्षया अस्यां पङ्कप्रभायां मेघानां संस्वेदनादिकं केवलं देव एवं एका चाहिये । इस प्ररूपणा में प्रथम और द्वितीय प्ररूपणाकी अपेक्षा 'नवरं' जो विशेषता है-वह इस प्रकार से है-'देवो विपकरेइ असुरोवि पकरेइ णो णागो पकरेई' रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा में मेघोंका संस्वेदन आदि तीनों भी देव, असुर एवं नाग करते हैं-परन्तु बालुका प्रभा में मेघोंका संस्वेदन आदि देव भी करता है, असुर भी करता है, किन्तु नाग नहीं करता है । इस कथन से कि नाग नहीं करता है यह अनुमानित होता हैं कि तृतीय पृथिवी में नागकुमारका गमन संभवित नहीं होता है । 'चउत्थीए वि एवं' चौथी पङ्कप्रभा में भी रत्नप्रभा आदिकी तरह से ही गेहादिकों की प्ररूपणा है-ऐसा जानना चाहिये । किन्तु पूर्वप्ररूपणा की अपेक्षा से जो 'नवरं' विशेषता है यह इस प्रकार से है-'देवो एको पकरेइ, णो असुरो, णो णागो पकरेइ' इस चतुर्थ पङ्कप्रभा पृथिवी में मेघोंका संस्वेदन आदि, रत्नવાલુકામભા પૃથ્વીની પણ પ્રરૂપણા સમજવી. પણ પહેલી અને બીજી પૃથ્વીની ३५यानी अपेक्षा 'वर' त्री पृथ्वीमा मा प्रमाणे विशेषता छ- 'देवो वि पकरेइ, असुरो विपकरेड, णो णागो पकरेड' पडली मन्ने काममा મેનું સંવેદન આદિ ત્રણ કરે છે, એટલે કે દેવ પણ કરે છે, અસુર પણ કરે છે અને નાગ પણ કરે છે, પરંતુ ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં તે કાર્ય દેવ પણ કરે છે. અસુર પણ કરે છે, પણ નાગકુમાર કરતા નથી. આ કથનથી એવું અનુમાન કરી साय छत्री वीमा नागभानुं गमन समिति नथी, 'चउत्थीए चि iી ચેથી પંક પ્રભા પૃથ્વીની પ્રરૂપણ પણ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પ્રરૂપણુ જેવી જ सभावी, परंतु मानी १४तव्यतामा 'णवर' नीय प्रभाय विशेषता छ 'देवा एको पकरेइ, गो असुरो णो णागो पकरेइ' ५४मा Yali भानु શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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