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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ६ उ. ८ . १ पृथिवीस्वरूपनिरूपणम् १०३ 'देवोवि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो वि पकरेइ' देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नागोऽपि प्रकरोति संस्वेदनादिकमिति भावः । गौतमः पृच्छति - 'अस्थिणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीओ वायरे थणिय सदे ?' हे भदन्त ! अस्ति संभवति खलु अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् बादरः स्थूलः स्तनितशब्दः = घनगर्जनम् १ | भगवानाह 'हंता, अस्थि, तिणि वि पकरेंति' हे गौतम ! हन्त, सत्यम् रत्नप्रभायां बादरः स्तनितशब्दः अस्ति संभवति । तं च स्तनितशब्दं त्रयोऽपि देवासुरनागाः प्रकुर्वन्ति । गौतमः पृच्छति 'अस्थि णं भंते ! इमी से रयणप्पभाए पुढवीए अहेवाय रे अगणिकाए ? ' हे भदन्त ! अस्ति संभवति खलु अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् अधः = अधोभागे कहते हैं 'देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो वि पकरेइ' देवभी करता है असुर भी करता है और नाग भी करता है अब गौतमस्वामी प्रभुसे पुनः पूछते हैं कि 'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए बायरे थणियसदे' हे भदन्त ! अवस्थित इस रत्नप्रभा पृथिवीमें बादर स्थूल स्तनितशब्द मेघगर्जना होती है क्या ? यहां पर जहां यह 'अस्थि' शब्द आया है वह 'सभवतिकिम्' क्या ऐसा हो सकता है' इस संभवना अर्थमें प्रयुक्त हुआ है इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं 'हंता अत्थि, तिष्णिवि पकरेंति' हाँ, गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवीमें बादर स्तनित शब्दका होना संभवित है और इसे वहाँ देव, असुर एवं नाग करते हैं । पुनः गौतमप्रभु से प्रश्न करते हैं कि-'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पकरेंति - देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरेइ, नागो वि पकरेइ' भो ४२, એટલે કે દેવ પણ કરે છે, અસુર પણ કરે છે, અને નાગ પણ કરે છે. अ- 'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयप्पभाए पुढवीए वायरे यणियसदे ?' હે ભદન્ત ! અધઃસ્થિત આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં શું ખાદર (સ્થૂળ) સ્તનિતશબ્દ (મેઘગર્જના) थाय छे ? उत्तर- 'हंता, अत्थि, तिणि वि, पकरेंति' डा, गौतम रत्नअला પૃથ્વીમાં ખાદર સ્તનિત શબ્દ (મેગજના) સ`ભવી શકે છે, અને તે ત્રણે (દેવ, असुर ने नाग) रे छे. अनोमा 'अस्थि' यह 'शुं मेवं संभवी शडे छे,' मेवा સભવના અર્થ'માં વપરાયુ’ છે. प्रश्न 1- 'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे बायरे अगणिकाए ?" હે ભદન્ત! અધઃસ્થિત આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં શું ખાર અગ્નિકાય સંભવી શકે છે ? શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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