SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ममैवचन्द्रिका टीका श. ६ उ. ८ सृ. १ पृथिवीस्वरूपनिरूपणम् ९७ ता, सूर्याभा इति वा ? नायमर्थः समर्थः । एवं द्वितीयायां पृथिव्यां भणितभ्वम् । एत्रम् तृतीयायामपि भणितव्यम्, नवरम् - देवोऽपि प्रकरोति, असुरोऽपि प्रकरोति, नो नागः मकरोति चतुर्थ्यामपि एवम् नवरम् - देवः एकः प्रकरोति, मासुरः, न नागः प्रकरोति । एवम् अधस्तनीषु सर्वासु देवः एकः प्रकरोति । अस्ति खलु भदन्त ! सौधर्मेशानयोः कल्पयोः अयो गेहा इति वा, गेहापणा रत्नप्रभा पृथिवीमें चन्द्रप्रभा अथवा सूर्यप्रभा है क्या ? (णो इण ट्ठे समट्टे) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। ( एवं दोच्चाए पुढवीए भाणियन्ब) इसी तरह से द्वितीय पृथिवीमें भी कह लेना चाहिये । ( एवं तच्चाए वि भाणियन्वनवर देवो वि पकरे, असुरो वि पकरेड़, णो णागो पकरेs) इसी तरहसे तृतीय पृथिवीमें भी कहलेना चाहिये । विशेष यह है कि तृतीय पृथिवीमें देव भी करता है असुर भी करता है । परन्तु नाग नहीं करता है । (उत्थेवि एवं नवरं देवो एको पकरेइ) चौथी पृथिवीमें भी ऐसा ही कहलेना चाहिये विशेषता यहां पर इतनी ही है कि यहां केवल एक देवही करता है (णो असुरो, जो नागो पकरेड़ ) न असुर करता है और न नाग करता है । ( एव हेडिलास सव्वासु देवो एक्को पकरेह ) इसी प्रकार से नीचेकी समस्तबाकी की पृथिवियोंमें एक देव ही करता है । ( अस्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणं कप्पाणं अहे गेहा बा हे अहन्त! या रत्नअला पृथ्वीमांशु यन्द्रनीप्रभा डे सूर्य नीला छे जरी ? (णो इणट्ठे समट्ठे ) हे गौतम । त्यां चन्द्र सूर्यना अाश संभवित नथी. ( एवं दोच्चाए पुढवीए भाणियां) मा प्रभाषेनुं स्थन मील पृथ्वीना विषयभां पशु समभवु. (ri amre विभाणियव्वं - णवर देवो वि पकरेइ, असुरो वि पकरे, णो गागो पकरेइ) मे ४ प्रभाषेनुं प्रथन श्री पृथ्वी विषे या समन्युं परन्तु श्रील પૃથ્વીમાં સસ્વેદન આદિ દેવ પણ કરે છે અને અસુર પણ કરે છે, પરન્તુ નાગ કરતા नथी, भेटली ४ विशेषता समभवी. (चउत्थे वि एवं - देवो एक्को पकरेह) ચાથી પૃથ્વીમાં પણ એજ પ્રમાણે કથન સમજવું. તેમાં સવેદન આદિ કેવળ એક हेव ०४ ५रै छे, पेटवी विशेषता समन्वी, ( णो असुरो, णो नागो पकरे ) असुर ४२ता नथी भने नाग पशु उश्ता नथी. ( एवं हिल्ला प्रभा माडीनी समस्त नीथेनी पृथ्वीमा ४ व ४ ४२ छे. (अस्थि णं भंते ! सोहम्मीसासाणं कप्पाणं पकरेह) શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ सव्वास देवो एको संश्वहन माहि अहे गेष्वार बा.
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy