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प्रमेषचन्द्रिका टी० ० ४ ० ६ ० ३ कम स्थितिलिपणम ९१ भगवानाह-' गोयमा ! हेडिला तिणि प्रयणाए ' हे गौतम ! अधस्तनाः आधास्त्रयश्चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी च, इत्येते ज्ञानावरणं कर्म भजनया कदाचिद् बध्नन्ति, कदाचिन्नो बध्नन्ति, चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनिनो यदि सरागा भवन्ति तदा ज्ञानावरणं बध्नन्ति यदा तु छद्मस्थवीतरागा एकादशगुणस्थान वत्तिनो जीवास्तदा ज्ञानावरणं कम न बध्नन्ति, छद्मस्थतीतरागाणां वेदनीयस्यैव बन्धकत्वात् , अत एव भजनया' इत्युक्तम् , 'उवरिल्ले न बंधइ' उपरितनः अन्तिमः केवलदर्शनी भवस्थः सयोगिकेवली अयोगिकेवली इत्यर्थः सिद्धो वा हेत्वभावात् न बध्नाति । 'एवं वेयणिज्जवजाओ सत्त वि ' एवं ज्ञानावरणवदेव वेदनीयवर्जाः (केवलदसणी बंधइ) केवलदर्शनवाला जीव बांधता है ? कौन से दर्शनवाला जीव बांधता है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं(गोयमा) हे गौतम ! (हेडिल्ला तिणि भयणाए ) जो जीव चक्षुदर्शन वाला, अचक्षुदर्शनवाला और अवधिदर्शनवाला है, वह जीव ज्ञानाव. रणकर्म का बंध भजना से करता है-अर्थात् कभी बांधता भी है, और कभी नहीं भी बांधता है। यदि इन दर्शनों वाला जीव सराग है तो वह ज्ञानावरण कर्म का बंध नियम से करता है और यदि वह छमस्थ वीतराग-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवाला है तो वह ज्ञानावरण कर्म का बंध नहीं करता है क्यों कि जो छद्मस्थ वीतराग होता है उसके वेदनीय कर्म का ही बंध होता है इसीलिये यहां (भजनया) ऐसा पद कहा है (उवरिल्ले न बंधइ) तथा जो केवलदर्शनी जीव है अर्थात् भवस्थ सयोग केवली और अयोगकेवली हैं-वे या जो सिद्ध जीव है वह बंधहेतु के अभाव हो जाने के कारण ज्ञानावरणीयकर्म
उत्तर-“ गोयमा !” उ गौतम ! " हे टुल्ला तिण्णि भयणाए' यक्षु દર્શનવાળે જીવ. અચક્ષ દર્શનવાળે જીવ અને અવધિ દર્શનવાળો જીવ જ્ઞાનાવરણીય કર્મ વિકલ્પ બાંધે છે–એટલે કે બાંધે છે પણ ખરાં અને નથી પણ બાંધતા. જે આ દશનવાળા જી સરાગ હોય તો તેઓ જ્ઞાનાવરણીય કમને બંધ અવશ્ય બાંધે છે, પણ જે તે છઘસ્થ વીતરાગ અગિયારમાં અને બારમાં ગુણસ્થાનવાળો હોય તો તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મ બાંધતો નથી, કારણ કે છવસ્થ વીતરાગને તે વેદનીય કર્મ જ બંધાય છે. તે કારણે એવું કહ્યું છે કે પહેલા ત્રણ દર્શનવાળે જીવ જ્ઞાનાવરણીય કર્મ વિકલ્પ બાંધે છે.” " उवरिले न बधइ” परतु १७ शनी 04-मेटले हैं म१२५ सयोग કેવલી અને અયોગ કેવલી અથવા તે સિદ્ધ જીવ-જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કરતું નથી, કારણ કે એવા જીવને બંધનાં કારણોને જ સર્વથા અભાવ હોય
श्री. भगवती सूत्र:४