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प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ६ ० ३ ० ४ कर्म स्थितिनिरूपणम्
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तन्न बध्नातीत्यर्थः, अत एव ' स्यादि ' त्युक्तम्, ' असन्नी बंधइ' असंज्ञी मनः पर्याप्तिरहितो जीवः बध्नात्येव ' गोसन्नि - गोअसन्नी न बंधइ ' किन्तु नोसंज्ञि - नोअसंज्ञी केवली सिद्धश्व हेत्वभावात् न बध्नाति ' एवं बेयणिजगज्जाओ छ कम्मप्पयडीओ ' एवम् अनेन प्रकारेण वेदनीयाऽऽयुष्कवर्जाः षट् कर्ममकृतयो विज्ञेयःः तथा च दर्शनावरणादिकर्माण्यपि वेदनीयाssयुष्कवर्जितानि संज्ञी कदाचिद् बध्नाति, कदाचिन्न बध्नाति, असंज्ञी तु बध्नात्येव, नोसंज्ञि - नोअसंज्ञी केवली सिद्वश्व बन्धकारणाभावात् तानि न बध्नात्येचे
है - और यदि वह संज्ञी जीव वीतराग है तो ज्ञानावरणीय कर्म का बंध नहीं करता है इसी कारण (स्यात्) ऐसा कहा है । (असन्नी बंधइ ) जो जीव मनः पर्याप्त से शून्य है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता ही है । ( णोसन्नी गोअसन्नी बंधइ ) किन्तु जो जीव न संज्ञी है और न असंज्ञी है अर्थात् जो केवलज्ञानी है और जो सिद्ध है ऐसा जीव कर्मबंध के कारणों के अभाव के कारण ज्ञानावरणीय कर्म का बंध नहीं करता है ( एवं वेयणिज्जाऽऽउगवज्जाओ छ कम्मप्पयडीओ) ज्ञानावरणीय कर्म की तरह ही इस द्वार में वेदनीय और आयु को छोड़कर ६ कर्मप्रकृतियों के विषय में भी जानना चाहिये, तथा च-वेदनीय और आयु को छोड़कर दर्शनावरणादि ६ कर्मप्रकृतियों को भी संज्ञी जीव कदाचित् यता भी है और कदाचित् नहीं भी बांधता है। तथा जो असंज्ञी जीव है वह तो बांधता ही है और जो न संज्ञी है, न असंज्ञी है-ऐसे केवली
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તા જ્ઞાનાવરણીય કના ખંધ કરતા નથી. એજ કારણે એવું કહ્યું છે કે “ સંસી જીવ કયારેક જ્ઞાનાવરણીય ક્રમના બંધ કરે છે અને કયારેક કરતા नथी. " " अन्नी बंधइ અસી જીવ ( મન:પર્યાપ્તિથી રહિત જીવ ) ज्ञानावरणीय अर्मना अंध उरे छे. ( णो सन्नी णो असन्नी न बंधइ ) परंतु જે જીવ ના સંની હાય છે અથવા તા ના અસની હાય છે એટલે કે કેવળજ્ઞાની અથવા સિદ્ધ જીવ, એવા જીવને કખ ધનાં होवाथी ते ज्ञानावरणीय अर्मनी गंध उरतो नथी. ( एवं ज्जाओ छ कम्मप्पयडीओ ) स ज्ञी आदि योना बेहनीय मने मायुर्भ સિવાયના છ ક્રર્માંના બંધનું કથન જ્ઞાનાવરણીય કર્મબંધના કથન પ્રમાણે જ સમજવું. એટલે કે સત્તી જીવ વેદનીય અને આયુકમ સિવાયની છ કર્મીપ્રકૃતિયાના અધ ક્યારેક ખાંધે છે અને કયારેક બાંધતા નથી, અસન્ની જીવ તે છ કમ પ્રકૃતિયાના બંધ ખાધે જ છે, પણ ના સંજ્ઞી અને ના અસની
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श्री भगवती सूत्र : ४
કારણેાના અભાવ वेयणिज्जाSS उगव ·