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भगवतीसूत्रे न बध्नाति, सम्यमिथ्याष्टिस्तु आयुष्यं कर्म न बध्नाति, तद्वन्धाऽध्यवसायस्थानाभावात् । गौतमः पुनरष्टमं संझ्यादिवन्धद्वारमाश्रित्य पृच्छति-'णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं सन्नी बंधइ, असन्नी बंधइ ?' हे भदन्त ! ज्ञानावरणीयं खलु कर्म किं संज्ञी बध्नाति ? असंज्ञी वा बध्नाति ? ' णोसन्नि-णोअसन्नी बंधइ ? ' नोसंज्ञि-नोअसंझी वा बध्नाति ? भगवान् उत्तरयति- गोयमा ! सन्नी सिय बंधा, सिय णो बंधइ ' हे गौतम ! संज्ञी मनःपर्याप्तियुक्तः स्यात् कदाचिद् बध्नाति, स्यात् कदाचिन बध्नाति, अवीतरागश्चेत्तदा ज्ञानावरणं बध्नाति, वीतरागश्चेत्तदा है। तथा सम्यग्दृष्टि जीव जो है, वह आयुकर्म का बंध नहीं करता है ऐसा जो कहा गया है उसका कारण यह है कि उसके आयु के बंध के अध्यवसाय स्थान का अभाव रहता है। ___अथ गौतम आठवें संज्ञी आदि बन्धद्वारको लेकर प्रभुसे पूछते हैं कि (णाणावरणिज्जंण भंते! कम्मं किं सन्नी बंधइ, असली बंधइ ?) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या संज्ञी जीव बांधता है? या असंज्ञी जीव बांधता है ? अथवा (णो सन्नी, णो असन्नी बंधइ) जो जीव न संज्ञी है और न असंज्ञी है, वह यांधता है ? भगवान् इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! (सन्नी सिय बंधह, सिय णो बंधइ) संज्ञी जीव-मनः प्रर्याप्ति सहित जो जीव है वह कदाचित् ज्ञाना. वरणीय कर्म का बंध करता भी है, और कदाचित् नहीं भी करता है। यदि संज्ञी जीव अवीतराग है, तो ज्ञानावरणीय कर्म का वह बंध करता દૃષ્ટિ જીવ આયુકમને બંધ કરતા નથી તેનું કારણ એ છે કે તેના આયુના બંધને અધ્યવસાય સ્થાનને અભાવ રહે છે. હવે ગૌતમસ્વામી આઠમાં સંસી આદિ બંધદ્વારને અનુલક્ષીને મહાવીર પ્રભુને એ प्रश्न पूछे छे (णोणावाणिज्ज ण भंते ! कम्म कि सन्नी बधइ ?) महन्त ! शं सभी जाना१२९॥य ४ मांधे छ ? " असन्नी बधइ ? " , असशी
ज्ञानावणीय भ. i छ १ अथवा (णो सन्नी णो असन्नी बधइ ?) જે જીવ ને સંજ્ઞી છે–એટલે કે સંજ્ઞી નથી, અને તે અસંશી છે એટલે કે અસંસી નથી–એ જીવ શું તે કર્મને બંધ કરે છે?
उत्त२-" गोयमा !” र गौतम ! ( सन्नी सिय बधइ, सिय णो बंधइ) संज्ञा ७३ ( मनापयामि सहितनी ०१) ४या२४ ज्ञानावरणीय કર્મને બંધ કરે છે અને ક્યારેક કરતું નથી. જે સંસી જીવ અવતરાગ હાય તે તે જ્ઞાનાવરણીય કર્મને બંધ કરે છે, પણ જે તે વીતરાગ હોય
श्री. भगवती सूत्र:४