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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ६ उ० ३ सू० ४ कर्म स्थितिनिरूपणम् २०१ एते त्रयोऽपि भजनया - कदाचिद् बध्नन्ति कदाचिन्न बध्नन्ति, आयुर्बन्धकाले वघ्नन्ति तदभिन्नकाले आयुष्यं न बध्नन्तीत्यर्थः, ' उवरिल्ले ण बंधड़ ' उपरितनः अन्तिमः नोसंयत - नोअसंयत-नोसंयतासंयतः सिद्धो जीवः आयुर्न बध्नाति । अथ सप्तमं दृष्टिद्वारमाह-'णाणावर णिज्जं णं भंते! कम्मं किं सम्मदिट्ठी बंध ? ' हे भदन्त ! ज्ञानावरणीयं खलु कर्म किं सम्कग्रदृष्टिर्वध्नाति ? ' अथवा मिच्छfat is ?' माष्टर्वध्नाति ?' सम्मामिच्छद्दिट्ठी बंधइ ?' सम्यगमिथ्यादृष्टिर्वध्नाति ? भगवानाह - ' गोयमा ! सम्मदिट्ठी सिय बंध, सिय णो 'इ' हे गौतम! सम्यग्रदृष्टिः वीतरागः, तद्भिन्नश्च भवति, तत्र वीतरागसे करते हैं - अर्थात् जब आयुकर्म के बंध का समय होता है-तब करते हैं और जब उसके बंध का समय नहीं होता तब नहीं करते हैं । (उबरिल्लेण बंधइ) तथा जो "नो संघत, नो असंयत और नो संयतासंयत सिद्ध जीव हैं " वे आयुकर्म का बंध नहीं करते हैं । अब सातवें दृष्टिद्वार की अपेक्षा सूत्रकार कथन करते हैं- इसमें गौतमने प्रभु से पूछा है कि- (णाणावर णिज्जं णं भंते ! कम्मं किं सम्महिडी बंधइ) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म क्या सम्यग्दृष्टि बांधता है ? अथवा - (मिच्छद्दिट्ठी बंधइ ) मिथ्यादृष्टि बांधता है ? या (सम्ममिच्छहिडी बंधइ) सम्यग् मिध्यादृष्टि बाँधता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि ( गोयमा ) हे गौतम! ( सम्यदिडी सिय बंधह, सिय णो बंध) सम्यग्दृष्टि जो जीव होता है वह ज्ञानावरणीय कर्मको बांधता भी है और नहीं भी बांधता है - इस कथन का तात्पर्य ऐ है कि છે-એટલે કે જ્યારે આયુકમના અંધનેા સમય હાય છે ત્યારે તે આયુ. કર્મોના 'ધ કરે છે, પણ જ્યારે તેના બંધના સમય ન હોય ત્યારે તે तेन। अंध पुरता नथी. " उवरिल्ले ण बंधइ " तथा "नो संयंत, नो अस યત અને ના સયતાસંયત સિદ્ધ થવા છે તેએ આયુક'ના ખધ કરતા નથી, હવે સૂત્રકાર સાતમાં દૃષ્ઠિદ્વારની અપેક્ષાએ નીચે પ્રમાણે પ્રરૂપણા કરે છે-ગૌતમ स्वाभी भहावीर अलुने सेवा प्रश्न पूछे छे - ( णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं सम्मद्दिट्ठी बंधइ ) डेलहन्त ! शुं सभ्यगृद्दृष्टि ज्ञानावरणीय अर्मनी मध मिच्छद्द्द्दिट्टी बंधइ " मिथ्यादृष्टि जांघे हे ? अथवा 66 કરે છે? અથવા 66 सम्म मिच्छद्दिट्ठी बंध " सभ्यग् मिथ्यादृष्टि जांघे छे ? उत्तर—“ गोयमा ! ” डे गौतम । ( सम्मदिट्ठी सिय बंधइ, सियो बंधइ ) सम्यगूदृष्टि व ज्ञानावरणीय असना अंध मधे भरो भने श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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