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________________ मैन्द्रिका टी० श० ६ ० ३ ० ३ कर्म' पुनलोपचयस्वरूपम् ૮૪૬ अपर्यवसितः, नो चैव खलु जीवानां कर्मोपचयः सादिकोऽपर्यवसितः । तत् केनार्थेन ? | गौतम ! ऐर्यापथिवन्धकस्य कर्मोपचयः सादिकः सपर्यवसितः । मवसिद्धिकस्य कर्मोपचयोऽनादिकः सपर्यवसितः अभवसिद्धिकस्य कर्मोपचयः अनादि कोऽपर्यवसितः, तत् तेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते अस्त्येकेषां जीवानां कि जिनका कर्मोपचय अनादि अनन्त हैं ( णो चेव णं जीवा णं कम्मोवचए साइए अपज्जवसिए) परन्तु ऐसा कोई भी जीव नहीं है कि जिसका कर्मोपचय सादि और अनन्त हो । ( से केणट्टेणं) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? ( गोधमा ) हे गौतम! ( ईरिया वहियबंधयस्स कम्मोवचए साइए सपज्जवसिए) ऐथपथिकबन्धक के ११ वे १२ वें और १३ वें गुणस्थानवर्ती जीव के कर्मोपचय सादि और सान्त होता है (भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाइए सपज्जवसिए) भवसिद्धिक जीव का कर्मोपचय अनादि सान्त होता है। (अभवसि - द्विस्स कम्मोवचए अणाइए अपज्जवसिए) अभवसिद्धिक जीव का कर्मोपचय अनादि अनन्त होता है । (से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ ) इस कारण हे गौतम! मैंने पूर्वोक्त रूप से ऐसा कहा है कि ( अत्थेगइयाणं जीवाणं ) कितनेक जीवों का ( कम्मोचचए) कर्मोपचय (साइए० णो चेवणं जीवाणं कम्मोवचए साइए अपज्जवसिए) सादि सान्त होता है, कितनेक जीवों का कर्मोपचय अनादि सान्त होता है कितनेक जीवों का कर्मोपचय अनादि अनन्त होता है - परन्तु ऐसा कोई सा भी अनंत होय छे, ( णो चेव णं जीवाण' कम्मोत्रचए साइए अपज्जवसिए) पशु એવા કાઇ પણ જીવ નથી કે જેના ક્રર્માપચય સાદિ અને અનંત હાય, ( से केणट्टेण० ) डे लहन्त ! येवु आयशा अरखे आहे! छो ? ( गोयमा ! ) हे गौतम! ( ईरियावहियबंधयस्स कम्मोवचए साइए सपज्जवसिए) भैर्यापथि मधान! - ११ भां, मारमा भने तेरभां गुस्थानवर्ती भवने। भेपियय साहि भने सान्त होय छे. ( भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणासज्जवसिए) लवसिद्धि भवनो भोपयय मनाहि सान्त होय छे. ( अभवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाइए अपज्जवलिए) अलवसिद्धि लवना भ युयय नाहि अनंत होय छे. ( से तेणट्ठेण गोयमा ! एवं बुच्चइ ) डे गौतम ! ते अरणे भें मेवु ं छु ं छे ! ( अत्थेगइयाण जीवाण ) डेटलाई भवानी ( कम्मोचर ) उभेपियय ( साइए० णो चेत्र ण जीवाण' कम्मोचए साइए अपज्जवसिए) साहि सान्त होय छे, डेंटला भवन उभययय मनाहि સન્તિ હાય છે અને કેટલાક જીવાને કર્મપચય અનાદિ અનત હાય છે. પરંતુ એક પણ એવા જીવ નથી હોતા કે જેના કર્માંપચય સાદિ અનંત હાય. श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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