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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ६ ० १ ० १ वेदनानिर्जरास्वरूपनिरूपणम् ७७१ यत् तद् वस्त्रं कर्दमरागरक्तं स्यात् , ' से णं भंते ! वत्थे दुद्धोयतराए चेव ' हे भदन्त ! तत् खलु कर्दमरागरक्तं वस्त्रं दुधौंततरकं चैव स्यात् ' दुवामतराए चेव' दुर्वाम्यतरकं चैव दुस्त्याज्यकलङ्क स्यात् , 'दुप्परिकम्मतराए चेव ' दुष्परिकर्मतरकं चैव, कष्टसाध्यचित्रोल्लेखन-भङ्गकरणादिप्रक्रियं स्यात् । ___ भगवानाह-' एवामेव गोयमा ! नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई' हे गौतम ! एवमेव कर्दमदृढरागरक्तवस्त्रवदेव नैरयिकाणां पापानि पापरूपाणि कर्माणि गाढीकृतानि शणसूत्रदृढबद्धमूचीकलापवत् आत्मप्रदेशैः सह अत्यन्तगाढ कर्दमराग से युक्त होगा (से णं भंते ! वत्थे दुद्धोयतराए चेव) वही वस्त्र दुधौ ततरक होगा, (दुवामतराए चेव ) दुर्वामतरक होगा, और ( दुप्परिकम्मतराए) दुष्परिकर्मतरक होगा,-जय गौतम ने ऐसा अपना अभिप्राय प्रकट कर दिया तय प्रभु ने उनसे कहा-(एवामेव गोयमा) हे गौतम ! इसी तरह से (नेरइयाणं पावाई कम्माइं) नारक जीवों के जो पापरूप कर्म होते हैं, वे कर्दम के दृढ राग से रक्त हुए वस्त्र की तरह ही गाढी कृत होते हैं-अर्थात् जिस प्रकार से शण की सूतली से खूब मजबूती के साथ सुइयों का समुदाय कसकर बांध दिया जाता है उसी प्रकार जो पापरूप कर्म आत्मा के प्रदेशों के साथ अत्यन्त गाढरूप से दृढरूप में संबद्ध होते हैं वे गाढीकृत पापरूप कर्म कहलाते हैं, ऐसे ही गाढीकृत पापरूप कर्म नारक जीवोंके होते हैं, (चिकणीकयाई) जिस प्रकार गौतम २वाभीमे ४ह्यु " भगवं" हे प्रो! " तत्थ णं जे से वत्थे कद्दमरागरत्ते" ते भन्नेमाथी रे १ डीययी म२ये शे (से गं भंते ! वत्थे दुद्धो यतराए चेव) ते वस्त्र हुतित२ (घोपाम भुस डरी, (दुवामतराए चेव) हुमत२४ (१५ ४ाढवा भुस ५ सयु) शे, मन " दुप्परिकम्मतराए" દુપરિકમેતરક ( ચિત્રાલેખન આદિ કરવામાં મુશ્કેલી પડે એવું) હશે. ગૌતभनी मा ४२ ४ाम सामनीने महावीर प्रभु मन छ-" एवामेव गोयमा !" गौतम ! मे प्रभारी " नेरइयाण पावाई कम्माई” ना२४ જીવેનાં જે પાપકર્મો હોય છે, તે કર્દમન ( કીચડના) ગાઢ રંગથી ખરડાયેલા વસ્ત્રની જેમ ગાઢીકૃત હોય છે. જેમ શણની સૂતળી વડે સેના સમુદાયને ખૂબ મજબૂતીથી બાંધી દેવામાં આવે છે, તેમ પાપરૂપ કર્મ આત્મપ્રદેશની સાથે અત્યન્ત દઢતાથી સંબદ્ધ હોય છે, એવાં પાપકર્મોને ગાઢીકૃત ५।५४ ४ छ. न॥२४ वानां ५५४ी सेवा ढीत डाय छे. “चिकणीकयाई” २वी रीते थी४७॥ भाटीनो मनेही पिंड तेनी चाशने ॥२२ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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