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________________ " प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५३०९ ०४ पाव पिस्यीय - महावीरयोर्वक्तव्यता ७२७ पुद्गलादिभिः, जीवैश्व सत्तां धारयद्भिः, उत्पचमानैः, विनश्यद्भिः परिणमभिश्व लोकानन्यभूतैः लोक्यते - निश्चीयते, मलोक्यते प्रकर्षेण निश्चीयते भूतादिधमकोऽयं लोक इति विनीश्चयते, अत एवान्वर्थतया यथार्थसंज्ञकोऽसौ इति दर्शयति -' जे लोक्कड़ से लोए ?' यो लोक्यते प्रमाणेन स लोकः पञ्चास्तिकायात्मक बौद्धों ने स्वीकार किया है ऐसे निरन्वयविनाश से युक्त यह लोक नहीं है, किन्तु (परिणए ) यह लोक विनाश धर्मवाला होकर भी अपने मूलरूप से नष्ट नहीं होता है किन्तु पर्यायान्तरों को प्राप्त करता रहता है जो निरन्वयनाश धर्मवाला होता है वह अपने मूलरूप से भी नष्ट हो जाता है और जब वह मूलरूप से ही नष्ट हो जाता है-तब पर्यायान्तरों को प्राप्त कौन कर सकता है अतः यह लोक ऐसा नहीं है, किन्तु पर्यायान्तरों को प्राप्त करता है अतः निरन्वयनाश धर्मयोगी नहीं है । इस प्रकार के लोक का निश्चय कैसे होता है तो इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि - (अजीवेहिं लोकइ परलोक्कइ ) सत्ता को धारण करनेवाले - ध्रौव्यरूप - उत्पाद धर्मवाले, विनाश धर्मवाले, परिणमनशील और लोक से अनन्यभूत-अभिन्न- ऐसे अजीब पुगलों से तथा जीवों से इस लोक का निश्चय किया जाता है तथा यह लोक भूतादि धर्मवाला है ऐसा प्रकर्षरूप से निश्चय किया है इसलिये इसका लोकऐसा नाम सार्थक है इस बात को दिखाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ( जे लोक्कर नथी, परिणए "" આ લેાક વિનાશ ધર્મોવાળા હેાવા છતાં પણ પેાતાના મૂળ રૂપમાંથી નાશ પામતા નથી, પણ અન્ય પર્યાયાને ( પર્યાયાન્તરાને ) પ્રાપ્ત કરતા રહે છે. નિરન્વયનાશ ધર્મવાળા પદાર્થ તેા પેાતાના મૂળ રૂપમાંથી પણ નષ્ટ થઈ જાય છે, આ રીતે મૂળ રૂપને નાશ પામ્યા પછી અન્ય પર્યા પ્રાપ્ત કરવાની વાત જ સભવી શકતી નથી આ લેક તા પર્યાયાન્તરે ને પ્રાપ્ત કરતા રહે છે, તેથી તે નિરન્વયનાશ ધવાળેા નથી. આ પ્રકારના લેાક છે એના નિશ્ચય કેવી રીતે કરી શકાય છે ? સૂત્રકાર હવે એજ પ્રશ્નનું નીચેનાં सूत्रों द्वारा सभाधान उरे छे. ( अजीवेहि लोकइ पलोकर ) सत्ताने धारण કરનારા-ધ્રૌવ્યરૂપ ( ઉત્પાદ ધર્મવાળાં, ) વિનાશ ધર્મ વાળા, પરિણમનશીલ અને લેાકથી અભિન્ન એવાં અજીવ પુદ્ગલાથી તથા જીવાથી આ લેકને નિશ્ચય કરી શકાય છે, તથા આ લાક ભૂતાદિ ધવાળા છે એવા પ્રક′રૂપે નિશ્ચય कुरी शाय छे. तेथी तेनुं "बोर्ड" मेनुं नाम सार्थ छे. मेन वातनुं प्रतिचाहने ५२ता सूत्र४२ उडे छे - " जे लोक्कर से लोए " ने प्रभा द्वारा "" श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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