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________________ ७२८ भगवतीसूत्रे सासून गगनखण्डो लोकपदवाच्यः, इति सत्यं किम् ? ततः उक्तरीत्या लोकस्वरूपाऽभिधायकपार्श्वजिनवचनसंस्मरणद्वारा भगवान् स्ववचनं समर्थितवानिति ' स्थविरा आहुः 'हंता, भगवं' हे भदन्त ! हन्त, सत्यं भवता यद् लोकस्वरूपं प्रतिपादितं तत् सर्वथा सत्यमेवेत्यर्थः। ___ भगवानाह-' से तेणटेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ-असंखेज्जे तं चेव' हे आर्याः ! स्थविराः ! तत् तेनार्थेन तस्माद्धेतोः एवम् उक्तरीत्या उच्यते-असंख्येये लोके तदेव पूर्ववदेव अनन्तानि रात्रिंदिवानि परीतानि च उदपद्यन्त' इत्यादि बोध्यम् 'तप्पभिई च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं ' सव्वन्नू से लोए) जो प्रमाण के द्वारा विलोकित किया जा सके उसका नाम लोक है यह लोक गगन का पंचास्तिकाय रूप एक खण्ड है कहो आर्यों यह बात सत्य है न ? इस प्रकार पार्श्वनाथ भगवान के लोकस्वरूप के अभिधायक वचनों को याद कराकर भगवान् ने अपने वचनों को सम. र्थन किया तब स्थविरों ने (हंता भगवं) हां भगवान् ! ऐसा ही हैअर्थात् आपने जो लोक के स्वरूप का प्रतिपादन किया है वह सर्वथा सत्य ही है ऐसा कहा-तय प्रभु ने उनसे ( से तेणटेणं अज्जो एवं वुच्चइ असंखेज्जे तं चेव ) ऐसा कहा कि हे आर्यो ! इसी कारण मैंने ऐसा कहा है कि असंख्यात लोक में असंख्यात और अनंत रातदिन उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और आगे भी उत्पन्न होते रहेंगे इत्यादि सब कथन यहांपर पूर्वोक्त रूप से लगालेना चाहिये। (तप्पभिई च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं सव्वन्नू सव्वदरिसी વિકી શકાય (જોઈ શકાય) છે, તેનું નામ જ લેક છે. આ લેક ગગનને (આકાશને ) પંચાસ્તિકાય રૂપ એક ખંડ છે. “ કહે આર્ય! આ વાત સત્ય છે ને ?” આ પ્રમાણે પાર્શ્વનાથ ભગવાનના લેક–સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરનારાં વચનને યાદ કરાવીને જ્યારે ભગવાન મહાવીરે પોતાનાં વચનનું સમર્થન ज्यु, त्यारे स्थविरा. युं “हता भगव" &, सपान ! सj ४ छ. એટલે કે લેકના સ્વરૂપનું આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું છે તે સર્વથા સત્ય છે. त्यारे भावीर प्रभु तेभने ४थु-( से तेणद्वेण अज्जो ! एवं वुच्चइ, असंखेज्ज त'चेव ) 3 पायो ! ते सणे में थे ऽयु छ ? असभ्यात प्रदेशवाणा લેકમાં અનંત અને અસંખ્યાત રાત્રિદિવસ ઉત્પન્ન થયાં છે, ઉત્પન્ન થાય છે અને ભવિષ્યમાં પણ ઉત્પન્ન થશે, ઈત્યાદિ સમસ્ત પૂર્વોક્ત કથન અહીં ગ્રહણ કરવું "तप्पभिई च णते पासाबच्चेज्जा थेरा भगवतो समण भगवं महावीर' सव्वन्न सव्वदरिसी त्ति पच्चभिजाणांति" मा प्रभारी श्रम सगवान महा श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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