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________________ प्रमेयधन्द्रिका टी0 श० ५ ० ८ ० ३ जीपादिधृद्धिहाम्पादिनिरूपणम् ६७४ ' सोपचयाः १, सापचयाः २, निरुपचय-निरपचयाः ३, एते त्रयो भङ्गा एकेन्द्रियेषु न घटन्ते, प्रत्येकमुत्पादोद्वर्तनयोस्तद्विरहस्य चासद्भावादिति, ' सेसा जीवा चउहिं वि पदेहि माणियव्या' शेषाः जीवा द्वीन्द्रियादारभ्य वैमानिकपर्यन्ता एकोनविंशतिदण्डकस्थाः चतुर्वपिपदेषु सोपचयादिरूपेषु भणितव्या-वक्तव्याः। एकेन्द्रियाणां दण्डकपञ्चकं विहाय शेषकोनविंशतिदण्डकजीवेषु सोपचयादय श्चत्वारोऽपि भङ्गा लभ्यन्त इति भावः। गौतमः पृच्छति-'सिद्धा णं पुच्छा ? ' हे भदन्त ! सिद्धाः खलु किम् सोपचयाः, सापचयाः, सोपचय-सापचयः, निरुपचय-निरपचयाः वा भवन्ति ? भगवानाह'गोयमा ! 'सिद्धा सोवचया, णो सावचया, णो सोवचयसावचया, निरुवचयको लेकर वहां वृद्धि और हानि का सद्भाव रहता है। बाकी के (सोवचया १ सावचया २ निरवचया-निरवचया ३) ये भंग एकेन्द्रिय जीवों में घटित नहीं होते हैं। क्यों कि एकेन्द्रियों में प्रत्येक का उत्पाद, उद्वतन और इनके विरह का अभाव है। (सेसा जीवा चउहिं वि पयेहि माणियव्वा) द्विन्द्रियसे लेकर वैमानिक देवों तक के जीव जो कि १९ दण्डकों में हैं चारों ही सोपचयादिरूप भङ्गों में कथन करने योग्य हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि एकेन्द्रियों के दण्डकपञ्चक का छोड़कर बाकी के १९ दण्डकों के जीवों में सोपचयादि चारों ही भग पाये जाते हैं । ____ गौतम पूछते हैं-(सिद्धाणं पुच्छा) हे भदन्त ! सिद्ध जीव क्या सोपचय हैं ? या अपचय रहित हैं ? या सोपचय सापच हैं ? या निरुपचय निरपचय है इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि-(गोयमा) हे गौतम ! (सिद्धा सोवचया, णो सावचय, णो सोवचयसावचया, त्रो मे सन्द्रिय वोने वा ५७ता नथी. मेटले है ( सोवचया, सावचया, निरुवचय-निरवचय ) मात्र मन ताशुपता नथी, १२५ એકેન્દ્રિમાં પ્રત્યેકને ઉત્પાદ, ઉદ્વર્તન અને તેમનો વિરહને અભાવ છે. ( सेसा जीवा चउहि वि पएहि भाणियव्वा ) द्वीन्द्रियथा सधन मानि वो પર્યન્તના જીવો કે જે ૧૯ દંડકમાં છે, તેમને ચારે ભંગ લાગુ પડે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે એકેન્દ્રિના પાંચ દંડકે સિવાયના બાકીના ૧૯ દંડકના જીવોને સોપચયાદિ ચાર ભંગ લાગુ પડી શકે છે. गौतम स्वाभीनी प्रश्न--" सिद्धाण पुच्छा" 3 महन्त ! सिद्ध व शु ઉપચય યુક્ત હોય છે? અથવા અપચય યુક્ત હોય છે ? અથવા ઉપચય અપ ચય બનેથી યુકત હોય છે ? અથવા ઉપચય–અપચય બનેથી રહિત હોય છે ? उत्तर--" गोयमा !" गौतम ! (सिद्धा सोवचया, णो सावचया, श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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