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भगवतीस्त्रे निरवचया' हे गौतम ! सिद्धाः खलु सोपचयाः वृद्धियुक्ता भवन्ति कर्मक्षयेण तत्रागमनात् , एवं निरुपचय-निरपचयाः-निरुपचया विरहकालमाश्रित्य वृद्धिरहिताः, निरपचयाः तत उद्वर्तनाभावात् , यथारस्थिता भवन्ति--इत्यर्थः, किन्तु नो सापचयाः ततः पुनरुद्वर्त्तनाभावात् , न वा सोपचय-सापचयाः युगपद् उपचया पचययुक्ता न भवन्ति, इति भङ्गद्वयं सिद्धेषु न घटते । प्रथमचतुर्थरूपं भङ्गद्वयं घटते इति भावः, अत्र प्रथमचतुर्थरूपं भगद्वयं स्वीकृतम् ॥ गौतमः पृच्छति— जीवाणं भंते ! केवइयं कालं निरुपचय-निरवचया ? ' हे भदन्त ! जीवाः खलु निरुवचय निरवचया) सिद्ध वृद्धियुक्त होने के कारण सोपचय होते हैं इसका कारण यह है कि सिद्धावस्था में जीव कर्मों के क्षय हो जाने से ही आता है निरुपचय ये इस कारण से कहे गये हैं कि विरहकाल को लेकर ये वृद्धि से रहित कहे गये हैं तथा जो जीव इस अवस्था में पहुँच जाता है फिर उसका वहां से उद्वर्तन होता नहीं है इस कारण ये निरपचय-यथावस्थित कहे गये हैं। (नो सापचया, न वा सोपचय सापचया) ये दो भङ्ग सिद्धों में नहीं हैं। क्यों कि उनमें पहुँच कर जीव वापिस नहीं आता है, अतः वे सापचय नहीं है और एक साथ वे सोपचय सापचय नहीं होते हैं इस कारण वे तृतीयभगवाले भी नहीं हैं। प्रथम और चतुर्थभङ्ग ये दो भंग इनमें घटित होते हैं । अय गौतम स्वामी पूछते हैं कि (जीवा णं भंते ! केवइयं कालं निरुवचय-निरवचया) हे भदन्त ! जीव कितने कालतक उपचय रहित और अपचय रहित होते हैं ? उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं (गोयमा) हे गौतम ! णो सोवचयसावचया, निरुवचय-निरवचया ) सिद्धामा वृद्धि थती लावाथी તેઓ ઉપચય યુકત હોય છે, કારણ કે કર્મોને ક્ષય કરીને કેટલાક જીવો સિદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરનારે જીવ ફરીથી સંસારમાં જન્મ લેતો નથી. તે કારણે सिद्धानी सध्यामां घटा था नथी. ( नो सापचया, न वा सोपचयसापचया) આ બે ભેગોને સિદ્ધમાં અભાવ હોય છે. સિદ્ધપદે પહોંચેલે જીવ સંસારમાં ફરી જન્મ લેતે નથી, તે કારણે તેને અપચય યુકત કહી શકાય નહીં. વળી તેઓ એક સાથે ઉપચય-અપચય બનેથી યુકત હોતા નથી, તે કારણે ત્રીજા ભંગને પણ તેમનામાં નિષેધ કર્યો છે. તેમને પહેલે અને ચોથો ભંગ લાગુ પડે છે, એટલે કે તેઓ ઉપચયથી યુક્ત હોય છે અને ઉપચય-અપચયથી રહિત હોય છે.
प्रश्न-" जीवाण भते ! केवइयं काल निरुवचय-निरवचया ?" 3 હે ભદત! જી કેટલા કાળ સુધી ઉપચય-અપચયથી રહિત રહે છે?
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪