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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० ५ १० ८ सू० १ पुद्गलस्वरूपनिरूपणम् ६०३ अमध्याः अप्रदेशाः सन्ति । 'तए णं से नियंठिपुत्ते अणगारे नारदपुत्त अणगारं एवं वयासी' ततः तदनन्तरं खलु स निर्ग्रन्थीपुत्रः अनगारः नारदपुत्रमनगारम् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत्-'जइ णं ते अज्जो ! सबपोग्गला सअड्ढा, समज्झा, सपएसा, णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा' हे आर्य ! नारदपुत्र ! यदि खलु ते तव बुद्धिविषये सर्वपुचलाः सार्धाः, समध्याः, सप्रदेशाः सन्ति, नो अनर्धाः, अमध्याः, अप्रदेशाः सन्ति, तर्हि किं दवादे सेणं अज्जो ! सवयोग्गला सअडा, समज्झा, सपएसा, णो अणडा, अमज्झा, अपएसा ? हे आर्य ! किं द्रव्यादेशेन द्रब्यापेक्षया सर्वपुद्गलाः सार्धाः, समध्याः, सप्रदेशाः, नो अनर्धाः, अमध्याः, अपदेशा ? अथवा-' खेतादे सेणं अन्जो ! सव्यपोग्गला सडा-तह सहित हैं और प्रदेशों से सहित हैं। वे अर्धभाग से रहित नहीं हैं, मध्यभाग से रहित नहीं हैं और अपने प्रदेशों से भी रहित नहीं है। इस प्रकार से नारदपुत्र अनगारकी कल्पना सुनकर निर्ग्रन्थी पुत्र अनगार ने उनसे कहा-(जइणं ते अज्जो! सयपोग्गला स अट्टा, समझा, सपएसा, णो अणडा,अमझा,अपएसा) हे आर्य ! यदि तुम्हारी समझ के अनुसार ऐसा ही माना जावे कि समस्त पुद्गल अर्धभाग सहित हैं, मध्यभाग सहित हैं, और प्रदेशों से युक्त हैं तथा वे अर्धभागरहित, मध्यभागरहित और प्रदेशों से रहित नहीं हैं तो ( किं व्वादे सेणं अजा ! सव्वपोग्गला स अट्टा, समझा, सपएसा णो अणडा, अमझा अपएसा) हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि ऐली यह आपकी समझ किस आधार पर अवलम्बित है-च्या द्रव्य की अपेक्षा पर यह आधारित है या क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा पर आधारित है ? અર્ધભાગ સહિત છે, મધ્યભાગ સહિત છે અને પ્રદેશ સહિત છે, તેઓ અર્ધ. ભાગથી રહિત નથી, મધ્યભાગથી રહિત નથી અને પ્રદેશથી રહિત પણ નથી. નારદપુત્ર અણગારની આ પ્રકારની માન્યતા (કલ્પના) સાંભળીને નિશીપુત્ર असारे भने । प्रभारी पूछ्युं-(जइणं ते अज्जो ! सव्व पोग्गला सअड्ढा, समझा, सपरसा, णो अणड्ढा, अमज्झा, अपएसा) माय ! ने मापनी માન્યતા અનુસાર એવું જ માનવામાં આવે કે સમસ્ત મુદ્રલે અર્ધભાગ સહિત છે, મધ્યભાગ સહિત છે, અને પ્રદેશથી યુક્ત છે, તથા તેઓ અભાગ, भध्यमा भने प्रशाथी ।डित नथी, तो (किं दव्वादेसण अज्जो ! सव्व पोग्गला स अड्ढा, समज्झा, सपएसा, णो अगड्ढा, अमज्झा, अपएसा) हुं આપની પાસેથી એ જાણવા માગું છું કે આપની તે માન્યતા કયા આધાર પર અવલંબિત છે? શું આપ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ એ પ્રકારની માન્યતા ધરાવે श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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