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________________ ૧૦૮ भगवतीसूत्रे जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षण असंख्येयं कालम् , एवं यावत्-अनन्तगुणकालका, एवं वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शम् , यावत्-अनन्तगुणरूक्षः, एवं सूक्ष्मपरिणत पुद्गलः, एवं बादरपरिणतः पुद्गलः । शब्दपरिणतः खलु भदन्त ! पुद्गलः कालतः किच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेण आवलिविषय में भी जानना चाहिये । ( एगगुणकालए णं भंते। पोग्गले कालओ केपच्चिरं होइ ) हे भदन्त ! जिस पुद्गल में कृष्ण गुण एक गुना रहता है अर्थात् एक गुणित कृष्णगुण रहता है वह पुद्गल काल की अपेक्षा कब तक वैसा ही बना रहना है ? (गोयमा) हे गौतम । (जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज-एवं जाव अणंतगुणकालए एवं वपण-गंध-रस-फासं जाव अणंतगुणलुक्खे, एवं सुहमपरिणए पोग्गले, एवं बादरपरिणए पाग्गले ) हे भदन्त ! जिस पुद्गल में कृष्ण गुण एक गुण रहता है ऐसा वह पुद्गल कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक वैसा का वैसा ही बना रहता है। इसी तरह से यावत् अनंतगुणित कालगुण वाले पुद्गल के विषय में भी जानना चाहिये, इसी तरह से वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल के विषय में यावत् अनन्तगुणे ( रूखा ) रूक्ष गुणवाले पुद्गल के विषय में, सूक्ष्मरूप से परिणत हुए पुद्गल के विषय में और बादररूप से परिणत हुए पुद्गल के विषय में भी जानना चाहिये । ( सहपरिणए णमंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिरं होइ ) हे भदन्त ! शब्दरूप में (एगगुणकालए ण भंते ! पोग्गले कालओ केवच्चिर होइ ? ) र महन्त ! २ પુલમાં કૃષ્ણ ગુણને એક જ અંશ રહેલું હોય છે, તે પુલ કાળની અપેક્ષાએ टमा समय सुधी मेj४ २ छ ? (गोयमा! जहण्णेण एग समय', उक्कोसेण असंखेज्जकालं-एव जाव अणतगुणकालए-एवं-वण्ण-गंध-रस-फास-जाव अणं तगुणलुक्खे, एवं सुहुमपरिणए पोग्गले, एवं बादरपरिणए पोग्गले) 3 ગૌતમ ! જે પુલમાં કાળાશના ગુણને એક અંશ રહેલો હોય છે, એવું પુલ ઓછામાં ઓછા એક સમય સુધી અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ સુધી એવું ને એવું રહે છે. અનંતગણ પર્યન્તના કૃષ્ણવર્ણવાળા પુલના વિષયમાં પણ એ જ પ્રમાણે સમજવું વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શવાળા પદ્રલના વિષયમાં પણ એમ જ સમજવું. અનંતગણ પર્યન્તના રૂક્ષ (લુખાપણુ) ગુણવાળા પુલના વિષયમાં, સૂમરૂપે પરિણમેલા પુદ્ગલના વિષયમાં અને સ્કૂલ (બાદર) રૂપે પરિણમેલા પુદ્ગલના વિષયમાં પણ એ જ પ્રમાણે સમ. ( सहपरिणएणं भते ! पोग्गले कालओ केवच्चिर होइ?) 3 Ad! श्री.भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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