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भगवतीसूत्र यावत्-असंख्यातादेशिकानन्तप्रदेशिकस्कन्धस्य असिधारादिभि छेदनभेदन विषयरूपश्नस्य स्वीकारात्मकम् निषेधात्मकं चोत्तरम् , तथा अग्नि-पुष्करसंवर्त मेघ-गङ्गामहानदीषु परमाणुपुद्गलादीनां दहनार्दीभवन-प्रतिस्खलनविषयकप्रश्नोत्तरम् , ततः परमाणुपुद्गलानां साध-समध्य-सपदेशत्वविषयकमनस्य निषेधात्मकमुत्तरम् , एवं द्विप्रदेशिकस्कन्ध-त्रिप्रदेशिकस्कन्धादीनां सार्ध-समध्यसपदेशत्वविषयकप्रश्नस्य द्विपदेशिक-चतुष्पदेशिकादीनां सममदेशतया परिगणितानां यावत्-संख्यातमदेशिका-संख्यातप्रदेशिका-नन्तमदेशिकानां साधत्वम् अमध्यत्वं समदेशत्वं च इति, विषमप्रदेशतया प्रसिद्धानां त्रिप्रदेशिक-पञ्चप्रदेशिछेदन भेदन होता है क्या? ऐसा प्रश्न, नहीं होता है ऐसा समाधान, इस प्रकार यावत् असंख्यात प्रदेशिक स्कन्ध का, अनन्त प्रदेशिक स्कन्ध का असिधारा आदि से छेदन भेदन होता है क्या? ऐसा प्रश्न, होता भी है और नहीं भी होता है ऐसा उत्तर, अग्नि पुष्कर संवर्तक मेघ, एवं गंगामहानदियोंमें परमाणु आदि पुद्गलों का दहन, आर्दीभवन एवं प्रतिस्खलन विषयक, प्रश्न और उत्तर परमाणु आदि पुद्गलों का अर्ध सहित होने विषयक मध्य सहित होने विषयक एवं प्रदेशसहित होनेविषयक प्रश्न का निषेधात्मक उत्तर, द्विप्रदेशिक स्कन्ध एवं त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आदि अर्धसहित हैं ? मध्यसहित हैं ? प्रदेशसहित है ? ऐसे प्रश्नका समाधान द्विप्रदेशिक एवं चतुष्प्रदेशिक आदि समस्तस्कन्ध यावत् संख्यात प्रदेशिक असंख्यात प्रदेशिक, अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अर्धसहित होते हैं, मध्यरहित होते हैं और प्रदेशसहित होते हैं ऐसा कथन, तथा विषमप्रदेश वाले त्रिप्रदेशिक, पंचप्रदेशिक यावत् अनन्त मई, मेवो प्रश्न भने “ थाय छे ५२५ मई भने नयी ५ तु," मेवा उत्तर.
અગ્નિ પુષ્કર સંવર્તક નામને મેઘ, અને ગંગાદિ મહા નદીઓમાં પરમાણુ આદિ પુદગલેને દહન, આર્દીભવન (ભીંજવાની ક્રિયા) અને પ્રતિખ્ખલન ખરી પડવાં વિષયક પ્રશ્નો અને તેના ઉત્તરનું પ્રતિપાદન.
પરમાણુ પુદ્ગલે અર્ધસહિત, મધ્ય સહિત અને પ્રદેશ સહિત હેય छ नही?" मेवा प्रश्न भने " नथी तi," मेव उत्त२.
પ્રશ્નઢિપ્રદેશિક, ત્રિપ્રદેશિક આદિ છે શું અર્ધ રહિત છે? મધ્ય સહિત છે? પ્રદેશ સહિત છે? ઉત્તર–દ્ધિપ્રદેશિક અને ચતુષ્પદેશિક આદિ સમસ્કન્ધ, સંખ્યાત પ્રદેશિક, અસંખ્યાત પ્રદેશિક અને અનંત પ્રદેશિક પર્યનના સ્કન્ધ અર્ધ સહિત હોય છે, મધ્ય રહિત હોય છે અને પ્રદેશ સહિત હોય છે, એવું કથન. તથા વિષમ પ્રદેશવાળા ત્રિપ્રદેશિક, પંચપ્રદેશિક, અને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪