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________________ प्रमेयचन्द्रिका ठी० श०५ उ०६०८ आचार्योपाध्याय सिद्धिगमननिरूपणम् ४३७ टीका--आधाकर्मादय पदार्थान् प्रायः आचार्यो प्राध्यायादय एव परिषदि प्रज्ञापयन्ति, अतः के ते आचादिय इत्याकाङ्क्षायां फलमुखेन प्रतिपादयन्नाह - आयरिय-उवज्झाएणं ' इत्यादि । ' आयरिय - उवज्झाएणं भंते ! सविससि गणं अगिore संगिण्हमाणे अगिलाए उबगिण्हमाणे ' गौतमः पृच्छति-हे भन्दत ! आचार्योपाध्यायः खलु आचार्येण सहितः उपाध्यायः आचार्योपाध्यायः इति मध्यमपदलोपी समासः, स्वविषये अर्थदानमूत्रदानस्वरूपे गणं शिष्यवर्गम् अग्लानतया खेदरहितत्वेन संगृह्णन् - अङ्गीकुर्वन्, अस्नानतया अखेदेन उपगृह्णन् सहायतां सम्पादयन् 'कहहिं भवरगहणेहिं सिज्झइ, जाव - अंतं करेइ ? ' कतिभिः हो जाते हैं, कितनेक आचार्य उपाध्याय दो भवों के बाद सिद्ध हो जाते हैं, -तीजे भव कों तो कोई उल्लंघन नहीं करते हैं । टीकार्थ- परिषदा में आधाकर्म आदि पदार्थों का प्रतिपादन प्रायः आचार्य उपाध्याय आदि ज्ञानी जन ही करते हैं, इसलिये शंका हो सकती है कि ये आचार्य उपाध्याय कौन हैं, तो इसके समाधान निमित्त सूत्रकार कहते हैं - ( आयरियउवज्झाएणं ) इत्यादि । इसमें गौतम स्वामी प्रभु से पूछते हैं - ( आयरियउवज्झाएणं भंते!) हे भदन्त ! आचार्य जो सूत्र के अर्थ समझाते हैं और उपाध्याय जो कि सूत्र सिखलाते हैं (सविससि गणं अगिलाए संगिन्हमाणे ) शिष्यवर्ग को अपने विषय में अर्थदान में सूत्रदान में बिना किसी खेद के अंगीकार करते हैं अर्थात् जो शिष्य जनों को आनंद के साथ सूत्र सिखाते हैउसका अर्थ समझाते हैं तथा ( अगिलाए उवगिण्हमाणे ) विना किसी खेद भाव के अनन्दोल्लास पूर्वक जो उन्हें यात्मकल्याण के मार्ग में કેટલાક આચાર્યો અને ઉપાધ્યાયે બે ભવ કરીને સિદ્ધપદ પામે છે, ત્રીજા ભવ માઇ તા દરેકે દરેક આચાય અને ઉપાધ્યાય સિદ્ધપદ અવશ્ય પામે છે. 6 ટીકા—સભામાં આધાકમ આદિ પદાર્થનું પ્રતિપાદન સામાન્ય રીતે તે આચાર્યાં, ઉપાધ્યાયે આદિ જ્ઞાની લોકો જ કરે છે તેા એવા જ્ઞાની લોકો કેટલા ભવ કરીને સિદ્ધપદ પામે છે તે આ સૂત્રમાં સમજાવવામાં આવેલ છે. गौतम स्वाभीनो प्रश्न - ( आयरिय उवज्झाएणं भंते !) हे लहन्त ! मायार्य કે જે સૂત્રના અથ સમજાવે છે, અને ઉપાધ્યાય કે જેએ સૂત્ર શિખવે छे, ( स विससि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे ) यो शिष्यगणुने पोताना વિષયમાં–અર્થ દાનમાં અને સૂત્રદાનમાં કોઇ પણ પ્રકારના ખેદ વિના અપનાવે છે—એટલે કે જેએ શિષ્યગણને આનંદપૂર્વક સૂત્ર શિખવે છે-તેના અથ समन्नवे छे तथा (अगिला उवगिहाणे ) भेथे। तेभने मानहपूर्व आत्म श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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