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________________ ૨૮ भगवतीस्त्रे यावत् राजपिण्डम् । आधाकर्म ' अनवधम् ' इति बहुजनमध्ये प्रज्ञापयिता भवति स तस्य यावत् अस्ति आराधना ? यावत्-राजपिण्डम् ।। सू० ७॥ टीका-अनन्तरोक्ता वेदना ज्ञानाचाराधनाया अभावेन जायते, अत आराधनाऽनाराधनास्वरूपमाह-'आहाकम्मं ' इत्यादि । 'आहाकम्मं 'अणवज्जे 'त्ति मणं पहारेत्ता भवति ' यः खलु प्राणी आधाकर्म ' अनवद्यम् ' अनिन्दितम् इति मनः प्रधारयिता भवति मनसि अवधारणां करोति — सेणं तस्स ठाणस्स अणालोजानना चाहिये । (आहाकम्मं ण “ अणवज्जे ' त्ति बहु जणमझे पन्नवइत्ता भवह, से णं तस्स जाव अत्थि आराहणा-जाव रायपिंड) हे भदन्त ! आधाकर्म निर्दोष है इस तरहसे अनेक मनुष्योंमें जो जताने वाला होता है उसे यावत् राजपिण्ड तक पहले की तरह से जानना चाहिये। टीकार्थ-अनन्तरोक्त वेदना ज्ञानादिक की आराधना के अभाव से होती है, इस लिये सूत्रकार आराधना और अनाराधना के स्वरूपको इस सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं " आधाकर्म आहार-अनवद्य निर्दोष है" इस प्रकार से अपने मन में निश्चय करता है " से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ " वह उस आधाकर्म रूप स्थानकी न आलोचना करता है और न प्रतिक्रमण करता है। इस तरह आलोचना प्रतिक्रमण के विना ही यदि वह मर जाता है तो ऐसा मनुष्य आराधक नहीं होता है अर्थात् अनालोचित और अप्रतिक्रान्त मनुष्य के आराधना जाव रायपिड) 3 गौतम! २. विषयमा ५९५ २।४पिड ५-तना पूड़ित ५२ ४ा प्रमाणे ४ सभा. (आहाकम्म अणवज्जे त्ति अन्नमन्नस्स अणुप्पक्षषइत्ता भवइ से णं तस्स ? ) 3 महन्त ! साधा निहाप छ,' सेम કહીને પરસ્પરને-એક બીજાને આહાર અપાવનારને શું આરાધના થાય છે? ( एवं पि तहचेव जाव रायपिड) गौतम ! माना ४०५ ५ पिड यातना पूरित ४५ प्रमाणे ४ सभ. आहाकम्म णं अणवज्जे त्ति बह जण मञ्झे पन्नवइत्ता भवइ, से णं तस्स जोव अस्थि आराहणा ? -जाव रायपिड) महन्त ! “ माधाम निषि छ, " मे भने मनुष्ये। समक्ष પ્રજ્ઞાપના કરનાર સાધુને શું આરાધક કહી શકાય છે? હે ગૌતમ! આ વિષયમાં પણ “ રાજપિંડ ” પર્યન્તનું પૂર્વોક્ત કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ. ટીકાઈ–ઉપરના સૂત્રમાં જે વેદનાને ઉલ્લેખ કરાયો છે, તે વેદના જ્ઞાનાદિકની આરાધનાને અભાવે થાય છે, તેથી સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા આરાघना मने मनराधनान २१३५ मतावे छे-( आहाकम्मं अणवज्जे ति मणं पहारेत्ता भवइ ) २७१ मया साधु " माथाभाष युत मासार श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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