SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०० भगवतीसूत्रे जीवाणं सरीरेहिं धणुं निघत्तिए ते वि य णं जीवा काइयाए, जाव-पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा । एवं धणू पुटे पंचहि किरियाहिं, जीवा पंचहि, हारू पंचहिं, उसूं पंचहिं, सरे, पत्तणे फले, पहारू पंचहिं ।। सू० ३ ॥ छाया-पुरुषः खलु भदन्त ! धनुः परामशति, धनुः परामृश्य इषु परामशति, इषु परामृश्य स्थाने स्थित्वा आयतकर्णायतमिधूं करोति, आयतकर्णायतमिषु कृत्वा ऊर्ध्वम् विहायसि इषुम् उद्विध्यति, ततः तस्मिन् इषौ ऊर्ध्वम् विहायसि उद्विद्ध सति, यान् तत्र प्राणान् , भूतान् , जीवान , सत्त्वान् , अभिहन्ति, वर्तयति, ले षयति, संघातयति, संघट्टयति, परितापयति, क्लमयति, स्थानात् स्थानं संक्रमयति, जीविताद् व्यपरोपयति, ततः खलु भदन्त ! स पुरुषः कतिक्रियः? गौतम ! पुरुष की धनुर्विषयक क्रिया वक्तव्यता'पुरिसेणं भंते ! इत्यादि। सत्रार्थ- ( पुरिसे णं भंते ! धणुं परामुसइ ) हे भदन्त ! कोई एक पुरुष हो और वह धनुष को ग्रहण करे (परामुसित्ता उसुं परामुसइ) बाद में धनुष ग्रहण करने के पश्चात् घाण को ग्रहण करे, (पगमुसित्ता ठाणं ठाइ ) और बाण को ग्रहण करके फिर वह किसी स्थान पर जाकर बैठ जावे (ठिच्चा ) बैठ कर (आययकनाययं उसुं करेइ ) फिर उस बाण को चढ़ाने के लिये धनुष को कानतक खींचे (आययकण्णा. ययं उसुं करित्ता उडू वेहायसं उविहिए समाणे जाई तत्थ, पाणाई, भूयाई, जीवाइं सत्ताई अभिहणइ, वत्तेइ, लेसेह, संघाएइ, संघटेइ, परितावेइ, किलामेइ, ठाणाओ ठाणं संकामेइ-जीवियाओ ववरोवेइ, तएणं भंते । से पुरिसे कई किरिए ) धनुष का कानतक खींचे फिर ધનુષવાળા પુરુષની વક્તવ્યતા'पुरिसेणं भंते ! 'त्यादि. सूत्रार्थ-(पुरिसे ण भते ! धणु परामुसह) भडन्त ! ४ पुरुष धनुध्यने अडाय ४२, (परा मुसित्ता उसु परामुसइ) तेने घड ज्या पछी मायने अडर रे, (परामुसित्ता ठाणं ठाइ) धनुष्य भने माने अजय शन त स्थले धन मेसी तय ठिच्चा) त्यां मेसीने (आययकन्नाययं उसुकरेइ) ते धनुष्य ५२ मा यावाने भाटे ते धनुष्यने न सुधी थे, (आयय कण्णाययं उसु करित्ता उत वेहायस उविहिए समाणे जाई तत्थ, पाणाई, भूयाई, जीवाई, सत्ताई अभिहणइ, वत्तेइ. लेसेइ, संघाएइ, संघटेइ, परितावेइ, किलामेह, ठाणाओ ठाण संकामेइ-जीवियाओ ववरोवेइ, तएणं भते ! से पुरिसे कइ किरिए) श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy