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भगवतीसूत्रे भगवानाह-' जहा पढमसए चउत्थुद्देसे आलावगा, तहा नेयव्या, जावअलमत्थुत्ति वत्तव्यं सिया' हे गौतम ! यथा प्रथमशतके चतुर्थों द्देशके आलापका स्तथा ज्ञातव्याः, तथा च तत्र 'छद्मस्थः खलु आधोऽवधिकः, परमाधोऽवधिकच द्विपकारकोऽपि केवलेन संयमादिना न कथमपि सिध्यति' इत्याद्युक्तम् तदनुसार मेव प्रकृतेऽपि विज्ञेयम् , यावत्-यावत्पर्यन्तम्-' उत्पनज्ञानादिधारणकर्ता केवलो' अलमस्तु इति वक्तव्यं स्यात्-भवेत् इत्यन्तं ज्ञेयम् , पूर्वमुक्तत्वेऽपि उक्तिवैचित्र्येण जाव अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया) हे गौतम ! जिस प्रका से प्रथमशतक में चतुर्थ उद्देशक में आलापक कहे हैं उसी प्रकार से यहां पर भी आलापक जानना चाहिये, वहां अधोवधिक और परमाधोवधिक ये दोनों प्रकार के भी छद्मस्थ जीव केवल संयम आदि के सेवन से मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं इत्यादि कहा गया है-सो उसी के अनुसार यहाँ प्रकृत में भी जानना चाहिये। यह आलापक कहां तक कहना चाहिये तो इसके लिये (अलमत्युत्ति वत्तव्वं सिया) यह कहा गया है तात्पर्य कहने का यह है कि उत्पन्न ज्ञान आदिकों को धारण करने वाले केवली (अलमस्तु) पूर्णज्ञानी इस प्रकार से वक्तव्य होते हैं " ऐसा पाठ जहां कहा गया है यहां तक का पाठ यहां ग्रहण करना चाहिये । यद्यपि यह बात एकबार प्रथम शतकके चतुर्थ उद्देशक में कही जा चुकी है, फिर भी उसे जो यहाँ पुनः कहा गया है वह संबंध विशेष को लेकर कहा गया है। अतः इस प्रकार से कहने में यहां पुनरुक्तिदोष
मा प्रश्न उत्तर आता मडावीर प्रभु ४३ छ-" जहा पढमसए चउत्थडेसे आलावगा तहा नेयव्वा जाव अलमत्थु त्ति वत्तव्य सिया" गौतम ! પહેલા શતકના ચોથા ઉદ્દેશકમાં જે પ્રકારના આલાપકો (પ્રશ્નોત્તર) આપવામાં આવ્યા છે, તે પ્રકારના આલાપકો અહીં પણ ગ્રહણ કરી લેવા. ત્યાં એવું પ્રતિપાદન કરાયું છે કે આધવધિક અને પરમાધવધિક, એ બન્ને પ્રકારના છશ્વસ્થ છો પણ સંયમ માત્રના સેવનથી સિદ્ધપદ પ્રાપ્ત કરતા નથી. તે सा विषयने मनुसक्षीने मी पण प्रमाणे समा. “ अलमत्थुत्ति वत्तव सिया" मा ५४ पर्यन्तन समस्त सूत्र43 सड़ी-घड ४श सेवा. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે “ ઉત્પન્ન જ્ઞાનાદિકોને ધારણ કરનારા કેવળીને "अलमस्त " 'पूर्ण ज्ञानी' ४डी शय छ,” 20 सूत्र५४ ५यन्तनु समस्त કથન અહીં ગ્રહણ કરી લેવું. આ વાતનું પહેલા શતકના ચેથા ઉદ્દેશકમાં પ્રતિપાદન થઈ ગયું છે, છતાં પણ અહીં તેને ફરીથી ઉલ્લેખ કરવાનું કારણ શું છે ? જે વિષયનું નિરૂપણ ચાલી રહ્યું છે, તેની સાથે આ વિષયને જે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪