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________________ ३२२ भगवतीसूत्रे -- - -- यावत्करणात् 'पादं वा, बाहुं वा ऊरुंचा, ' इति संग्राहयम् , भगवान् आह'गोयमा ! णो इणटे सम?' हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः नैतत्संभवति । गौतम स्तत्र कारणं पृच्छति-' से केणडेणं भंते ! जाव-ओगाहित्ता णो चिहित्तए ? हे भदन्त ! अथ तत् केमार्थेन यावत्-अवगाहय न स्थातुम् ? यावत्करणात्-केवली खलु वर्तमानसमये येषु आकाशप्रदेशेषु हस्तं वा, पादं वा बाहुं वा ऊरुवा, अवगाहय तिष्ठति, प्रभुः खलु केवली एष्यत्कालेऽपि तेष्वेव आकाशप्रदेशेषु हस्तादिकम् इति संग्राहयम् । भगवान् तत्र कारणं प्रतिपादयति 'गोयमा ! केवलिस्स वीरिय सजोग सहध्वयाए चलाई उवकरणाई भवंति' हे गौतम ! केवलिनः केवलज्ञानिनः खलु वीर्यसयोगसद्व्यतया, वीर्यान्तरायक्षयजन्या शक्तिः वीर्यम् , तत्मधानं सयोग -मनम्मभृतिव्यापारयुक्तं यत् सद्-विद्यमान द्रव्यं जीवरूपं तस्य भावस्तत्ता केलिये समर्थ हैं ? यहां यावत् शब्द से ( पायं वा बाहुं वा ऊरं वा) इस पाठ का संग्रह हुआ है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा) हे गौतम ! (णो इणटे समढे) यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यह बात नहीं बन सकती है। (से केण?णं भंते ! जाव ओगाहित्ता णो चिट्ठित्तए) गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं कि हे भदन्त ! यह बात क्यों नहीं बनसकती है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा!) हे गौतम! (केवलिस्स णं वीरिय सजोग-सद्दव्वयाए चलाई उवगरणाई भवंति ) केवली वीर्यान्तराय कर्म के सर्वथा क्षय से उत्पन्न हुई शक्तिरूप वीर्य की प्रधानता वाले मानस आदि के व्यापार से सत् जीव द्रव्यरूप होते हैं। अतः वे वीर्यसयोग सद्रव्य यहां प्रकट किये गये हैं। वीर्य के सद्भाव होने पर भी यदि व्यापाररूप योग आत्मा में न हो तो जीव का चलन महावीर प्रभुन। उत्तर-(गोयमा ! णा इणठे समटूठे) गौतम બની શકતું નથી. तेनुं ४२६] नावाने माटे गौतम स्वामीन पूछे छ-(से केणटूठेण भंते ! जाव ओगाहित्ता णो चिठित्तए) महन्त ! ॥ २२ मे मनी शतुं नथी! उत्तर-(गोयमा ) 3 गौतम ! (केवलिस्स णं वोरिय सजोग- सहव्वयाए चलाई उक्गरणाईभवंति) पक्षी, वीर्यान्तराय मना सर्वथा क्षय वाथी ઉત્પન્ન થયેલ શક્તિરૂપ વીર્યની પ્રધાનતાવાળા, માનસ આદિની પ્રવૃત્તિથી સત છવદ્રવ્ય રૂપ હોય છે. તેથી તેમને “વીર્યસગ સદ્રવ્ય” તરીકે ઓળખાવ્યા છે. વીર્યને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ જે વ્યાપાર ( પ્રવૃત્તિ) રૂપ યેગને શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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