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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श०५३०४ सू०१२ अनुत्तरदेवविषयेप्रश्नोत्तरनिरुणपम् ३०९ =समर्थाः भवन्ति किम् ? भगवानाह-'हंता, पभू' हे गौतम ! हन्त, सत्यं प्रभवः तत्रस्थिताः सन्त एवं अनुत्तरवैमानिकाः अत्रस्थितकेवलिना सह आलापादिकं कतुं समर्थाः । गौतमः पृच्छति-'से केणटेणं पभूणं अणुत्तरोववाइयादेवा, जावकरेत्तए ? ' हे भदन्त ! अथ तत् केनार्थेन कथं प्रभवः समर्थाः खलु अनुत्तरौप पातिका अनुत्तरवैमानिका देवाः यावत्-कर्तुम् ? यावत्करणात् तत्रगताश्चैव सन्तः इहगतेन केवलिना साधम् आलापकं वा, संलापकं वा इति संग्राहयम् । भग वानाह-" गोयमा ! जंणं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा अटुंबा, बार २ जिसमें बोला जाय वह संलाप है। इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम! (हंता पभू) हां वे इस प्रकार से करने के लिये समर्थ हैं। आपने स्थान पर रहे हुए ही वे अनुत्तर विमानवासी देव यहां पर रहे हुए केवली के साथ आलाप आदि कर सकने में समर्थ हैं। अब गौतम पुनः पूछते हैं-(से केणट्टेणं पभू णं अणुत्तरोववाइया देवा जाव करेत्तए ) हे भदन्त ! ऐसा जो वे अनुत्तरोत्पन्न वैमानिक देव कर सकते हैं-सो इसमें कारण क्या है ? यहां (जाव) पद से “तत्र गताश्वैव सन्तः इह गतेन केवलिना साध आलापकं वा संलापकं वा" इस पाठ का संग्रह किया गया है, तात्पर्य प्रश्न का यह है कि ऊर्ध्वलोकवासी वे अनुत्तर कल्पोत्पन्न देव अपने निजस्थान पर ही रहकर इस मनुष्यलोकवर्ती केवली के साथ जो अलाप संलाप कर सकने की शक्ति रखते हैं-सो इसमें कारण क्या है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं (गोयमा) हे गौतम ! (जं णं अणुत्तरोववाइया गौतम स्वामीना प्रश्न उत्तर मापता प्रभु ४ छ- (हता पभू) હે ગૌતમ ! તેઓ તેમ કરવાને સમર્થ હોય છે તેઓ તેમને સ્થાને રહીને જ મનુષ્ય લેકમાં રહેલા કેવલી ભગવાન સાથે વાર્તાલાપ કરી શકવાને શક્તિभानाय छे. तेनुं ॥२५ onाने माटे गौतम २१॥भी पूछे छ- ( सेकेणद्वेण पभ ण अणुत्तरोववाइया देवा जाव करेत्तए !) 3 Hira! ते मनुत्तर विमान पासी हेवे। सर्बु शा २0 ४२ शके छ ? म ( जाव ) ( पत) a द्वारा २मा सूत्रपा8 अ५ ४२वामा मा०॥ छ-( तत्र गताश्चैव सन्तः इह गतेन केवलिना साध आलापक वा संलापकवा) से ते सोवासी (मनु. ત્તર વિમાનવાસી) દેવે તેમના વિમાનમાં રહીને જ આ મનુષ્ય લેકમાં રહેલા કેવલી ભગવાનની સાથે આલાપ સંલાપ કરી શકવાને સમર્થ હોય छ, तेनुं ॥२५ शुं छे ? तना उत्तर ५ मडावीर प्रभु छ- (गोयमा ! ) 3 गौतम । श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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