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________________ ३९८ भगवतीसूत्रे एत्रमुच्यते-परम्परोपपन्नका यावत् जानन्ति ? गौतम ! परम्परोपपन्नकाः द्विविधाः प्राप्ताः-पर्याप्तकाश्च आर्याप्तकाश्च पर्याप्ता जानन्ति, अपर्याप्ता न जानन्ति, एवम् उपयुक्ताः, अनुपयुक्ताः, तत्र ये ते उपयुक्तास्ते जानन्ति, पश्यन्ति, तत् तेनार्थेन तदेव, ॥ सू० ११॥ कि अमायी सम्यग्दृष्टि यावत् नहीं देखते हैं ? ( गोयमा! अमायीस म्मदिट्ठी दुविहा पण्णत्ता) हे गौतम ! अमायीसम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कृहे गये हैं (अणंतरोववनगा य, परंपरोववन्नगाय) एक अनन्तरोपपन्नक और दूसरे परम्परोपपन्नक (तत्थ णं अणंतरोववनगा न जाणंति, न पासंति) इनमें जो अनन्तरोपपन्नक सम्यग्दृष्टि हैं वे नहीं जानते और नहीं देखते हैं। (परंपरोववन्नगा जाणंति) परंपरोपपन्नक जो सम्यग्दृष्टि हैं वे जानते हैं और देखते हैं। (से केणटेण भंते ! एवं वुच्चह-परंपरो. ववन्नगा जाव जाणंति) हे भदन्त ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि अनन्तरोपपन्नक यावत् जानते हैं ? देखते ? (गोयमा! परंपरोववभगा दुविहापण्णत्ता) हे गौतम ! परम्परोइपन्नक सम्यग्दृष्टि देव दो प्रकार के कहे गये हैं (पज्जत्तगाय अपज्जत्तगा य) पर्याप्तक और अपर्याप्तक सो पज्जत्ताजाणंति अपज्जत्ता न जाणंति ) जो परम्परोपपनक सम्यग्दृष्टि देव पर्याप्तक हैं वे तो जानते हैं और जो परम्परोपपन्नक सम्यग्दृष्टि देव अपर्याप्तक हैं वे नहीं जानते हैं। (एवं उवउत्ता अणुवउत्ता) इसी तरह से जो उपयोग से युक्त हैं वे ही जानते हैं और जो उपयोग से रहित हैं वे नहीं जानते हैं। अर्थात्-अमायिसम्यग्दृष्टि, परम्परोपपन्नक और पर्याप्तक इनके उपयोगयुक्त और अनुपयुक्त इस तरह से दो भेद करलेना चाहिये-सो (तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते जाणति पासंति ) जो વૈમાનિક તેને જાણતા-દેખતા નથી, પણ પરંપરોપપન્નક સમ્યગ્દષ્ટિ વૈમાનિકે तेने त छ भने तुमे छ ? (गोयमा ! परपरोक्वनगा दुविहा पण्णत्ता) गौतम ! ५२ परोपपन्न सभ्यलिट वैमानिना ये प्रा२ छ-(पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य) (१) पर्यात अने (२) माँH४. ( पज्जत्ता जाणति, अपज्जत्ता न जाणति) ५२ ५।५पन्न समष्टि पर्याप्तत: पैमानित त छ१६५ ५२५२५५न सभ्यष्टि अपर्यात वैमानि। ते यता नथी. ( एवं उवउत्ता अणवउत्ता) मेरी प्रमाणे या उपयोगथी युक्त छ, तेसो त छ, ५५५ જેઓ ઉપગથી રહિત છે, તેઓ જાણતા નથી. એટલે કે અમાધિ સમ્યગ્દષ્ટિ પરંપરોપપન્નક અને પર્યાપ્તક, એ ત્રણેના પણ ઉપયોગ યુક્ત અને ઉપયોગ डित सेवा मेले ५७ स. ( तत्थणजे ते उबउत्ता ते जाणंति पासंति) श्रीभगवतीसत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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