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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ०४ सू०११ केवलीप्रणीतमनोवयः निरुणपम् २९७ तत्र ये ते अमायि सम्यग्दृष्टयुपपन्नकास्ते जानन्ति, पश्यन्ति । तत् केनार्थम एवम् उच्यते-अमायिसम्यगृदृष्टयुपपन्नकाः यावत् पश्यन्ति ? गौतम ! अमायि सम्यग्दृष्टयो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः-अनन्तरोपपन्नकाच, परम्परोपपन्नकाच, तत्र अनन्तरोपपन्नका न जानन्ति, परम्परोपपन्नका जानन्ति, तत् केनार्थेन भदन्त ! में उत्पन्न हैं और दूसरे वे जो अमायि सम्यग्दृष्टियों में उत्पन्न हैं। (तत्थ णं जे ते माथिमिच्छादिही उववन्नगा ते न जाणंति) जो मायिमि. ध्यादृष्टियों में अर्थात् माथिमिथ्यादृष्टिरूप से उत्पन्न हैं वे केवलज्ञानी के प्रकृष्ट मन अथवा वचन को नहीं जानते हैं (न पासंति) नहीं देखते हैं। (तत्थ णं जे ते अमाईसम्मदिट्टी उववनगा तेणं जाणंति, पासंति) तथा जो अमाथिसम्यग्दृष्टिरूप से उत्पन्न हैं वे केवलज्ञानी के प्रकृष्ट मन और वचन को जानते हैं और देखते हैं। (तत्थ णं जे ते अमाई सम्मदिट्ठी उववन्नगा ते ण जाणति, पासंति, से केणटेणं एवं वु च्चह-अमाई सम्मदिट्ठी जाय पासंति) हे भदन्त ! जो अमायी सम्यग्दृष्टि पर्यायरूप से उत्पन्न हैं ते केवलज्ञानी के प्रकृष्ट मन अथवा वचन को नहीं जानते हैं और नहीं देखते हैं" सो ऐसा आप किस कारण से कहते हैं મિથ્યા દૃષ્ટિ વૈમાનિક દે કેવળજ્ઞાનીને પ્રકૃષ્ટ મન અથવા વચનને જાણતા नथी भने मता नथी. (तत्थ णजे ते अमाई सम्मदिदी उपवनगा ते ण जाणति पासति ) ५५५ समाथि सभ्यष्टि पैमानि । ज्ञानीना अट મન અને વચનને જાણે છે અને દેખે છે. (तत्थण जे ते अमाइ सम्मदिट्री उववन्नगा ते ण जाणंति पासंति, से देणद्वेण एवं वुच्चइ-अमाई सम्मदिट्ठी जाव पासति ? ) " 3 महन्त ! रेस। અમાયિ સમ્યગ્ર દૃષ્ટિ પર્યાય રૂપે ઉત્પન્ન થયેલા છે એવા વૈમાનિક દે કેવળ જ્ઞાનીના પ્રકૃષ્ટ મન અને વચનને જાણ-દેખી શકે છે,” એવું આપ શા કારણે કહે છે ? (गोयमा ! अमायीं सम्मदिदी दुविहा पण्णत्ता) है गौतम ! अभायी सभ्यष्टि प्रा२ना ॥ छ-(अणंतरोववनगा य, परंपरोववन्नगाय) (१) अनन्त।५५न्न मने (२) ५२-५२२५५न्न (तत्थण' अणतरोववन्नगा न जाणति, न पासंति ) तेमांथा रे अनन्त५५न सभ्य वैमानि छ, તેઓ કેવળજ્ઞાનીના પ્રકૃ2 મન અને વચનને જાણતા નથી અને દેખતા નથી. (पर एरोवन नगा जाण ति) ५५ ५२५५पन्न सभ्यष्टि वैभानि। तर तो छ भने मेछ. (से केणट्रेण भंते ! एवं वुच्चइ-पर परोववनगा जाव जाणंति ?) હે ભદન્ત ! આપ શા કારણે એવું કહે છે કે અનન્તરો પપન્નક સમ્યગ્દષ્ટિ भ०३८ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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