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________________ २७६ भगवती सूत्रे सम' हे गौतम! नायमर्थः समर्थः भवितुमर्हति केवलिवत् छद्मस्थो मनुष्यः न अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरिकं वा ज्ञातुं द्रष्टुं वा समर्थों भवति, अपितु कथंचिद् ज्ञातुं द्रष्टुं समर्था भवतीति दर्शयन्नाह - 'सोच्चा जाण, पासइ, पमाणओ वा श्रुत्वा वा प्रमाणतो वा आगमादिप्रमाणेन वा, छद्मस्थोऽपि मनुष्यः अन्तकरं, चरम शरीरिणं वा जानाति ज्ञातुं समर्थो भवति, पश्यति, द्रष्टुं वा समर्थो भवति । गौतमः ' श्रुत्वा ' इत्यस्याऽऽशयं पृच्छति' से किं तं सोच्चा ? ' अथ किम् तत् श्रुत्वा ? हे भदन्त ! ' श्रुत्वा ! इत्यस्य कोऽभिप्रायः १ इति भगवानाह - ' सोच्चार्णं केवलिस्स वा' हे गौतम ! छद्मस्थः केवलिनो जिनस्य अन्तिके 'अयं भविक: कहते हैं 'गोयमा ! हे गौतम!' णो इणट्ठे समङ्के ' यह अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात् छद्मस्थ जीव अन्तकर जीव को एव चरम शरीरी जीव को नहीं जानता है । अर्थात् वह साक्षात् रूपसे स्पष्ट विशद रूप से अपने ज्ञान द्वारा तो इन जीवों को देख नहीं सकता है परन्तु 'सोच्चा जाणइ, पासह पमाणओवा' सुन करके अथवा आगम आदि प्रमाण से वह इन्हें जान देख सकने में समर्थ हो सकता है ।' सुनकर के इन्हें जान देख सकता है' इस वाक्य के आशय को स्पष्ट जानने के अभि प्राय से गौतमस्वामी प्रभु से पूछते हैं कि-' तं सोच्चा' हे भदन्त ! छद्मस्थ सुन करके इन्हें जानता देखता है - इस का क्या अभिप्राय है ? इसके विषय में प्रभु गौतम से कहते हैं कि 'सोच्चा णं केवलिस्स बा, छद्मस्थ मनुष्य जिन भगवान् के पास ( यह भविक अंतकर होगा ) इत्यादि वचन सुनकर अंतकर जीवको जानता है और देखता है । 'केव " भडावीर प्रभु गौतमस्वाभीने या प्रमाणे श्वास आये छे " गोयमा ! णो इट्ठे समट्ठे " हे गौतम! से प्रभाशे जनतुं नथी. छद्मस्थ मनुष्य અન્તકર અને ચરમ શરીરી જીવને પોતાના જ્ઞાન દ્વારા તા સાક્ષાત્ રૂપે સ્પષ્ટ વિશદરૂપે જાણી શકતા નથી અને દેખી શકતા નથી. પરન્તુ " सोच्वा जाँणइ पासइ पमाणओ वा " सांलणीने अथवा आगम आदि प्रमाओ वडे ते तेने જાણી શકવાને અને દેખી શકવાને સમ ખની શકે છે ખરા. “ સાંભળીને તેને જાણી દેખી શકે છે ” આ કથનની વધારે સ્પષ્ટતા કરાવવા માટે ગૌતમ स्वाभी महावीर अलुने पूछे छे " से किं तं सोच्वा " हे लहन्त ! 66 સ્થ સાંભળીને તેમને જાણી દેખી શકે છે” એ કથનનું તાત્પર્ય શું છે ? મહાવીર प्रभु तेनुं तात्पर्य समभवता उडे छे " सोच्चा ण केवलिस वा ) જીવ અંતકર અને ચરમ શરીરી છે, ” એવું કેવલી ભગવાનને મુખે સાંભળીને છદ્મસ્થ જીવ મતકર અને ચરમ શરીરી જીને જાણી દેખી શકે છે, 66 241 श्री भगवती सूत्र : ४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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