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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ० ४ सू०८ वलीछमस्थनिरूपणम् २७५ जीवविशेषमवश्यमेव जानाति पश्यति इत्याशयः । गौतमः पृच्छति-' जहाणं भंते ! केवली अंतकरं वा, अंतिम सरीरियं वा, जाणइ, पासइ. छउमत्थे वि अंतकरं वा, अंतिमसरीरियं वा जाणइ, पासइ ? ' यथा खलु भदन्त ! केवली अन्तकरं वा, अन्तिमशरीरकं वा, जानाति, वश्यति, तथा खलु छद्मस्थोऽपि अन्तकरं वा,सर्वदुःखान्तकारकम् , अन्तिमशरीरिकं वा, यस्य यच्छरीरानन्तरं शरीरधारणेन भवति तं चरमशरीरधारिणमित्यर्थः जानाति, पश्यति ? भगवानाह-'गोयमा! णो इणढे जाणइ पासइ ' हाँ गौतम ! केवलज्ञान द्वारा और केवल दर्शन द्वारा दुःखान्त कर को एवं चमर शरीर धारी जीव विशेष को जानता है और देखता है। क्यों कि इस ज्ञान का माहात्म्य ही ऐसा है । अब गौतम प्रभु से इस बात को जानना चाहते हैं कि-'जहा णं भंते ! केवली अंतकर वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ, तहा णं छ उमत्थे वि अंतकर वा अंतिमसरीरियं वा जाणइ पासइ' हे भदन्त ! जिस प्रकार से केवलज्ञानी केवलज्ञान और केवलदर्शनके माहात्म्य से अन्तकर को तथा चरमशरीरधारी जीव को जानता और देखता है, उसी प्रकार से छद्मस्थजीव भी अन्तकर को या अन्तिमशरीरधारी जीव को अपने ज्ञान द्वारा ११ वे गुणस्थानवी जीव की अपेक्षा अवधि मनःपर्ययज्ञान द्वारा जानता देखना है क्या ? जो जीव गृहीत शरीर को छोड़ने के बाद फिर और दूसरा नवीन शरीर धारण नहीं करता है वह चरम शरीरीकहा गया है। इसके समाधान निमित्त प्रभु गौतम से હા, ગૌતમ! કેવળજ્ઞાની પિતાના કેવળ જ્ઞાન વડે અને કેવળ દર્શન વડે દુઃખાન્તર અને ચરમ શરીરધારી જીવને જાણી શકે છે, અને દેખી શકે છે, કારણ કે તે પ્રકારના જ્ઞાનમાં એ સામર્થ્ય રહેલું હોય છે. वे गौतभस्वामी महावीर प्रभुने भन्ने प्रश्न ४रे छ-" जहाणं भते । केवली अंतकर वा अतिमसरीरियं जाणइ वा पासह" महन्त ! 2 शत કેવળજ્ઞાની કેવળ જ્ઞાન અને કેવળ દર્શનના પ્રભાવથી અન્તકર તથા ચરમ शरीरधारी अपने adel ? छ भने हेभी श छ, “ तहाण छउमत्थे वि अंतकर वा अतिमसरीरिय वा जाणइ पासह" मेवी रीतेशु ७५२५ मनुष्य પણ પિતાના જ્ઞાન દ્વારા (૧૧ માં અને બારમાં ગુણસ્થાનવત જીવની અપેક્ષાએ અવધિમનઃ પર્યય જ્ઞાન દ્વારા) અંતકર અને ચરમ શરીરધારી જીવને જાણી શકે છે અને દેખી શકે છે? (જે જીવ પોતાના ચાલુ ભવના શરીરને છેડીને ફરીથી નવું શરીર ધારણ કરતું નથી, એટલે કે મોક્ષે જાય છે, તેને ચરમ શરીરી કહે છે.). श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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