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________________ २२२ भगवतीसूत्रे योनि संहरति, अनेनोक्तचतुर्थभङ्गोऽपास्तः, अथ परिशेषाद् उक्ततृतीयभङ्गं स्वीकुर्वनाह-'परामुसिय, परामुसिय अव्वाबाहेणं अव्वाबाहं जोणिओ गन्भं साहरई' अपितु परामृश्य परामृश्य निजहस्तेन गर्भ स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा मुहुः संस्पृश्य इत्यर्थः अव्याबाधेन अव्याबाधं समुखं यथा गर्भस्य पीडा न भवेत् तथा योनितो योनिद्वारा उदराद् गर्भ निष्कास्य संहरति गर्भाशयान्तरे प्रवेशयतीति। तस्य गर्भ संहरणप्रकार उक्तः । यच्चेह योनितो गर्भनिष्कासनं प्रोक्तं तत् लोकव्यवहारानु स्या विज्ञेयम् लोके हि 'निष्पन्नोऽनिष्पन्नो वा गर्भो योनिद्वारेणैव निर्गच्छतीति प्रसिद्धिः । अयं च गर्भसंहरणे देवस्या चारः प्रोक्तः। अथ तस्य सामर्थ्य प्रतिउसे उदान्तर में प्रवेश नहीं कराता है । इसी तरह से 'नो जोणिओ जोणिं साहरइ ' पाठ द्वारा चतुर्थ भंग का निषेध किया है अर्थात् योनिद्वारा गर्भ को निकाल कर योनिद्वारा ही वह उसे उदरान्तर में नहीं पहुंचाता है किन्तु (परामुसिय परामुसिय अव्वाबाहेणं अव्वावाहं जोणिओ गब्भ साहरइ) वह अपने हाथ से गर्भ को छू छू करके उसे जिस तरह से पीडा न हो इस तरह से योनि द्वारा बाहर निकालकर दसरे गर्भाशय में स्थापित कर देता है इस तरह यह तृतीयभङ्ग यहां स्वीकृत किया गया है। जो इस प्रकार से योनि द्वारा गर्भनिष्काशन प्रकट किया है वह लोकव्यवहार की अनुवृत्ति से कहा है ऐसा जानना चाहिये। लोक में ऐसा ही व्यवहार प्रसिद्ध है कि गर्भ, चाहे वह निष्पन्न हो चुका हो-या निष्पन्न नहीं हुआ हो योनिद्वार से ही निक लता है। यह गर्भ के संहरण में देव का आचार कहा है अब उसकी नथी. 21 रीते bilon गन ५५५ नराम ४१५ भणे छ. "नो जोणिओ जोणिं साहरह" योनिद्वारा 17 मा२ ढीने योनिद्वारा भी शियमा તેને મૂકતું નથી. આ રીતે ચેથા ભંગને પણ નકારાત્મક જવાબ મળે છે. “ परामुसिय परामुखिय अव्वाबाहेण अव्वावाह जोणिो गर्भ साहरई" तेना हाथ 43 मनी २५ ४२ रीन, तेने छ | પ્રકારની પીડા ન પહોંચે એવી રીતે, નિદ્વારા ગર્ભને બહાર કાઢીને બીજી સ્ત્રીના ગર્ભાશયમાં તેને મૂકે છે. આ રીતે ત્રીજા ભંગને અહીં સ્વીકાર થયે છે. નિદ્વારા ગર્ભના સંહરાની જે વાત અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે તે લોકવ્યવહાર અનુસાર કરવામાં આવેલ છે. ગર્ભનું હરિ સેગમેષી દેવવડે કેવી રીતે સંહરણ થાય છે એ બતાવ્યા પછી તે દેવનું સામર્થ્ય કેટલું છે તે બતાવવાને માટે સૂત્રકારે નીચેના પ્રશ્નોત્તરો આપ્યા છે. श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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