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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०५ उ०४ सू०२ केवलीहासादिनिरूपणम्
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वक्तव्यतामाह - ' पोहत्तएहिं ' इत्यादि । पृथक्त्वेषु पृथक्त्वसूत्रेषु बहुवचनसूत्रेष्वित्यर्थः, यथा - ' जीवाणं भंते ! इसमाणा वा, उस्सुयमाणा वा, कइ कम्मपयडिओ बंधति १ गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा अट्टविह बंधगा वा, इत्यादिषु । ' जीवे गिदियवज्जो तिय भंगो' जीवै केन्द्रियबर्जः त्रिभङ्गको वेदितव्यः तथा च जीवपदम् पृथिवीकायादिसम्बन्धीनि एकेन्द्रियपदानि च वर्जयित्वा तदितरेषु संभवात् " पृथिवी, अब, तेज, वायु और वनस्पति इन एकेन्द्रिय जीवों में भी अपनी २ पूर्व पर्याय-भव की अपेक्षा लेकर हासादिपरिणामों का संभव होता है। तात्पर्य कहने का यह है कि वर्तमान में एकेन्द्रियरूप से गृहीतभव में यद्यपि हासादिपरिणाम इनमें नहीं हैं परन्तु ये सब जीव अपनी कोई पूर्वभव की पर्याय में अवश्य २ हासादिपरिणाम वाले हुए होंगे - इस प्रकार से इस पूर्वाभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा लेकर उनमें हासादि परिणामता घट जाती है । इस अपेक्षा से उनमें इस पाठ की संगति कर लेनी चाहिये ।
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( पोहत एहिं ) पृथक्त्व सूत्रों में- बहुवचनवाले सूत्रों में- जसे (जीवे णं भंते ! हसमाणा वा उस्सुयमाणा वा, कइ कम्मपयडिओ बंधंति ? गोयमा सत्तविधगा वा अडविहबंधगा वा ) इत्यादि सूत्रों में- ( जीवे निदियवज्जो तियभंगो) जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीनभङ्ग जान ना चाहिये, तथा च- जीव पद को और पृथिवीकायादि संबंधी एकेन्द्रिय पदों को छोड़कर इनसे भिन्न १९ नारक आदि पदों में तीन भङ्ग कहना चाहिये तथा जीव पद में एवं पृथिव्यादिक कायपदों में बहुवचन
संभवात् ) पृथ्वीलाय, बजाय, तेरस्साय, वायुआय भने वनस्पतिप्रय, थे એકેન્દ્રિય જીવેામાં પણ પેાત પેાતની પૂર્વ પર્યાય (પૂભવ) ની અપેક્ષાએ હાસ્યાદિ પરિણામે સંભવી શકે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે વમાનમાં એકેન્દ્રિયરૂપે ભવધારણ કરેલા જીવામાં હાસ્ય આદિ વૃત્તિએ સ ંભવી શકતી નથી, પણ તે મધાં જીવે તેમની પૂર્વભવની કાઇ પર્યાયમાં અવશ્ય હાસ્યાદિ પરિણામવાળા હશે જ આ રીતે પૂર્વભાવ પ્રજ્ઞાપન નયની અપેક્ષાએ તેમનામાં હાસ્યાદિ પરિણામ ઘટાવી શકાય છે. એ દૃષ્ટિએ વિચાર લેવામાં આવે તે उपरोक्त सूत्रपाठमा अर्थ असंगतता हेजाशे नही ( पोह एही ) पृथउत्प सूत्रोभां ( अडुवयनवाकां सूत्रोमा ) नेम डे - " जीवाण भते ! इसमाणा वा उस्सुयमाणा वा, कइ कम्मपयडिओ बंधंति ? गोयमा ! सत्तविहबधगा वा अट्ठविह बधगा वा " छत्याहि सूत्रोभां - " जोवे गिंदियवज्जो तियभगो " એકેન્દ્રિય સિવાયના ત્રણ ભગ સમજવા. અને જીવ પદ્મને તથા પૃથ્વીકાયદ્ઘિના
જીવ અને
श्री भगवती सूत्र : ४