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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ५ उ०४ सू०२ केवलीहासादिनिरूपणम् २०१ नाह-गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठयिहबंधए वा गौतम ! सप्तविधबन्धको वा, अष्टविधबन्धको वा।
ननु नरकेषु दशविध क्षेत्रादिवेदनाया निरन्तरं सद्भावात् कथं नारकिर्णा हासौत्सुक्ययोः सम्भवः ? अत्राह-तीर्थकराणं जन्म-दीक्षा-केवलोत्पत्ति-निर्वाण रूपेषु चतुषु कल्याण के षु-नारकिणां हासौत्सुक्ययोः सम्भवः इति ॥ एवं जाववेमाणिए ' एवम् उपर्युक्तरीत्या जीवनारकाभिलापयत् यावत् वैमानिक वैमानिक पर्यन्तमित्यर्थः जीवनारकालापकद्वयं विहाय शेषेषु वैमानिकपर्यन्तेषु त्रयोहै ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि- ( गोयमा ) हे गौतम ! ऐसा नारक जीव ( सत्तविहबंधए वा अट्टविह बंधए वा) सात प्रकार के कर्मों का या आठ प्रकार के कर्मों का बंध करता है।
शंका-आपने जो नारक जीव को हास और उत्सुकता को लेकर सात या आठ कर्मों का बंधक प्रकट किया है सो यह बात इसलिये नहीं जचती है कि वहां नरकों में निरन्तर दश प्रकार कि क्षेत्र आदि वेदना बनी रहती है अतः वहां हास और उत्सुकता की संभावना ही नहीं होती है। फिर यहां यह बात कैसे कही ? सो इसका उत्तर इस प्रकार से है-तीर्थकर प्रभुओं का जब जन्मकल्याणक, दीक्षाकल्याणक, केवलज्ञानोत्पत्तिकल्याणक इन कल्याणकों के होने पर नारक जीवों में हास और औत्सुक्यभाव संभव होता है। अतः इसी संभावना को लेकर यहां ऐसा कहा गया है । ( एवं जाव वेमाणिए ) इसी तरह से-जीव और नारक के अभिलाप की तरह से-यावत् वैमानिक देवों तक के तेवीस दण्डकों में आलापक कर लेना चाहिये । परन्तु इन आलापकों
उत्तर-( गोयमा ! सत्तविहवधए घा अविहबधए वा ) सो ना२४ જીવ સાત અથવા આઠ પ્રકારનાં કર્મોનો બધ બાંધે છે.
શંકા-નરકમાં તો નિરંતર દસ પ્રકારની ક્ષેત્ર આદિ વેદના ભગવતી પડતી હોય છે. ત્યાં તે હાસ્ય અથવા ઉત્સુકતાની સંભાવના જ હોતી નથી, તે નારક જીવ હાસ્ય અને ઉત્સુકતાની અપેક્ષાએ સાત અથવા આઠ પ્રકારનાં કર્મોને બંધ બાંધે છે, એ વાત કેવી રીતે સંભવી શકે ?
સમાધાન–તીર્થંકર પ્રભુના જન્મકલ્યાણક, દીક્ષા કલ્યાણક, કેવળજ્ઞાન ત્પત્તિકકલ્યાણક, વગેરે માંગલિક પ્રસંગે નારક જીવમાં પણ હાસ્ય અને ઉત્સુકતાના ભાવ સંભવી શકે છે, તે પ્રકારની શક્યતાને અનુલક્ષીને કહેવામાં मायुं छे. (एव जाव वेमाणिए ) र प्रमाणे (04 मने ना२४ना प्रश्नी
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श्री. भगवती सूत्र:४