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________________ प्रमेर चन्द्रिका टीका ० ५ १०४ सू० १ छहारथशब्दश्रवणनिरूपणम् १९॥ जानाति केवली सर्वभावान पश्यति केवली, अनन्तं ज्ञानं केलिनः, अनन्तं दर्शन केवलिनः, नितं ज्ञानं केवलिनः, नितं दर्शनम् केवलिनः तत् तेनार्थेन यावत्पश्यति ॥ मू० १॥ टीका:-पूर्वोदेशके अन्यतीर्थिक छद्मस्थ मनुष्यवक्तव्यता प्रतिपादिता, आस्मिन् उद्देश केतु छद्मरथमनुष्य केवलिप्रभृतिना वक्तव्यतामाह-' छउमत्थे णं भंते ! मणुरसे' इत्यादि । गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! छद्मस्थः खलु मनुध्यः ' आउडिज्जमाणाई सद्दाई सुणेइ' थाकुटयमानान् ताडयमानान् मुखहस्तदण्डाभिस्ताड तेन समुत्पद्यमानान् शब्दान ऋणोति ? । तानेवाह-'तं जहा संखसहाणि वा, सिंगसहाणि वा, इत्यादि । तद्यथा-शङ्खशब्दान वा, शङ्गशब्दान् वा, शृङ्गं मृगादिशृङ्गम् तस्य शब्दान् मृगादिशृङ्गे छिद्रं कृत्वा वाघविशेषं करोति तादृशशृङ्ग शब्दान् ‘संखियसदाणि या' शखिकाशब्दान् वा ह्रस्वः शङ्खः शकिा, तस्या ते है और समस्त पदार्थों को वे देखते हैं । केवली भगवान का ज्ञान अनन्त होता है । उनका दर्शन भी अनन्त होता है । उनका ज्ञान आवरणरहित होता है उनका दर्शन भी आवरण रहित होता है। इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा पूर्वोक्त रूप से कहा है ॥ टीकार्थ-पूर्व उद्देशक में अन्यतीथिक छमस्थ मनुष्य संबंधी वक्तव्यता कही गई है। अब सूत्रकार इस उद्देशक में छमस्थ मनुष्य संबंधी और केवलो मनुष्य संबंधी वक्तव्यता का कथन कर रहे हैं-इस में गौतम प्रभु से पूछते हैं कि “ छउमस्थेणं भंते मणुस्से" हे भदन्त ! जो छमस्थ मनुष्य है वह ' आउडिजमाणाई सदाइं सुणेइ' आकुटयमान-ताइयमान मुख हस्त एवं दण्ड आदिकों के संयोग होने से उत्पन्न हुए शब्दों को सुनता है-अर्थात् मुख के साथ शंख आदि का जब संयोग होता है तब उससे "पूपू" शब्द निकलता है, हाथ के साथ तबला आदि का અને સમસ્ત પદાર્થોને કેવલી દે છે. કેવલીભગવાનનું જ્ઞાન અનંત હોય છે. તેમનું દર્શન ગણ અનંત હોય છે. તેમનું જ્ઞાન આવરણ રહિત હોય છે, તેમનું દર્શન પણ આવરણ રહિત હોય છે. હે ગૌતમ! તે કારણે મેં પૂર્વોક્ત કથન કર્યું છે. ટકાથ–આ ઉદ્દેશકમાં સૂત્રકાર છવાસ્થ મનુષ્યનું અને કેવલી મનુષ્યનું नि३५ यु छे. गौतम स्वामी महावीर प्रसुन मेरो प्रश्न ४२ छ ( छ उमत्थेणं भंते मणुस्से ) 3 महन्त ! छमस्थ मनुष्य (आउडिज्जमाणाई सदाइ सुणेइ) વાદ્યોને વગાડવાથી ઉત્પન્ન થતા અવનિને સાંભળે છે ખરો ? ઢોલ નગારા આદિ પર ડાંડી ટીપવાથી અવાજ નીકળે છે. શંખ આદિ વાધેમાં મુખ વડે હવા श्री. भगवती सूत्र:४
SR No.006318
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1142
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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